भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक मज़बूर माँ / भावना कुँअर
Kavita Kosh से
जी हाँ, मैं माँ हूँ
एक मज़बूर माँ
मैं भी होती थी
बड़ी धनवान औ
सक्षम कभी
हो गई मज़बूर
मैं आज बड़ी।
मेरे रिश्तों की टूटी
जब से कड़ी।
हुई मुझसे इक
बड़ी -सी भूल
बँध करके मैंने
मोहपाश में
अपना घर,धन
सब दे डाला।
अब बूढ़ी हो चली
काँपते हाथ
पर पेट की भूख
खूब सताती।
घुटनों से बेकार
पर फिर भी
घर-घर हूँ जाती।
पूरे दिन मैं
मेहनत करती
तब जाकर
कहीं भूख मिटाती।
सँभाले मैंने
पाँच-पाँच थे बेटे।
पर उनसे
अब देखो ये कैसे
लाचार, बूढ़ी
बेबस,अकेली माँ
नहीं सँभाले जाती।