भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक माचिस खोके में / गोविन्द कुमार 'गुंजन'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आसमान की छाती पर
पैर धरकर चल रहा है वह
समुन्दरों के किनारे
बैठकर वह पैरों से खंगाल डालता है
पाताल की गहराईयॉ

अब दुनिया का कोई भी पहाड़
उससे ज्यादा ऊंचा नहीं है

कभी कभी सोचता हू
कितना बड़ा है आदमी का दिमाग
मगर कितने तंग और छोटे छोटे घरों में
कितनी तहों में रखा गया है इसे
छोटी छोटी दराज़ों में

इस वक्त
बड़ी तेजी से सिकुड़ती हुई दुनिया में
यह सिकुड़ता हुआ आदमी
मेरी नज़रों के सामने है
छोटे छोटे कोनों में
अपना घर बनाता हुआ, मुस्कुराता हुआ
अपनी छोटी छोटी कल्पनाओं में डूबा हुआ

वह कितनी शान से जी रहा है
एक माचिस के खोके में रखे हुए
ढांका की एतिहासिक
मलमल के थान सी ज़िदगी
मगर सिकुड़ जाने की कला पर
कितना ऐंठ रहा है वह