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एक मुंजमिद लम्हा / राशिद जमाल
Kavita Kosh से
मिरे बातिन में
सद-हा रंग के मौसम
कई मंज़र, रूतें, तूफ़ान,
पल पल पल रहे हैं
और अपनी मौत मरते जा रहे हैं
कभी ऐसा भी होता है
कि इक मौसम, कोई मंज़र, कोई रूत या कोई तूफ़ाँ
तसलसुल की कड़ी से टूट कर
इक लम्हा रूकता है
ज़रा सा मुंजमिद होता है
और इक नज़्म होती है