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एक मुक्तक-रंग जी के प्रति / लाखन सिंह भदौरिया
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मिलते अनुभूति के मोती नहीं, पथ जीवन का पथरीला न होता।
जग पीर के नीर में डूबे बिना, यह रंग कभी चटकीला न होता।
रस आद्रता आती नहीं स्वर में यदि प्रीत का आँचल गीला न होता।
यह गीत तुम्हारे चुभीले न होते, जो गाँव का नाम कटीला न होता।