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एक युवा संन्यासिनी को देखकर / रंजना जायसवाल
Kavita Kosh से
मुण्डित सिर
गेरुआ वस्त्र
सूखी काया
निचुड़ा चेहरा
क्या तुम वही स्त्री हो संन्यासिनी
जो कहलाती थी कभी कामिनी
घने श्याम केश
रंगीन वस्त्र
मांसल देह
व फूल सी चेहरे वाली।
तुम्हारी युवा देह में
क्या अब धड़कती नहीं इच्छाएँ
कि सुखा डाला उन्हें भी
अँतड़ियों की तरह
संयम, नियम और तपस्या की अग्नि से।
संन्यासिनी, रात की प्रार्थना के बाद
जब लौटती हो तुम अपनी कुटिया में
क्या उदास नहीं होती कभी
लम्बीरातों में खलता नहीं अकेलापन
किलकारी मारकर हँस नहीं पड़ता तुम्हारा अजन्मा शिशु!
वह क्या था जिसने कर दिया उदासीन
प्रकृति और पुरुष के रिश्ते से
किस सुरक्षा की चाहत में जा पड़ी तुम
धर्म की शरण में
सच कहना संन्यासिनी
धर्म तुम्हारे गले की फांस है
कि कवच।