एक रात / अलेक्सान्दर पूश्किन / हरिवंश राय बच्चन
नींद नहीं मुझको आती है, दीप नहीं कोई जलता,
चारों ओर घिरा जो मेरे अन्धियाला मुझको खलता,
ख़ुट-खुट की आवाज़ें कितनी आतीं कानों में मेरे,
रात नापने को बैठी हैं घड़ियाँ जो मुझको घेरे ।
भाग्य देवियो, छेड़ पुराना बैठी हो पचड़ा-परपँच,
नींद-नशीली, झोंकोंवाली होती यह रस-रात, वरँच;
चूहे जैसे काट-कुतर की करते रातों में आवाज़,
वैसी ही ध्वनियों से जीवन करता है मुझको नासाज़ ।
बतलाओ, मतलब है क्या इन धीमी-धीमी बातों का,
ईश्वर जाने क्या शिकवा है इन दुखियारी रातों का ।
क्या न बताओगी यह मुझसे तुम किस चिन्तन में रहतीं,
मुझको आमन्त्रित करतीं या बात भविष्यत् की कहतीं ।
हाय, बताए कोई आकर मुझको शब्दों के माने,
जो कानों में कहती रहती रात अन्धेरी अनजाने !
अँग्रेज़ी से अनुवाद : हरिवंश राय बच्चन