एक लौ बची रहेगी / राजकुमार कुंभज
चट्टानों पर चढ़ने की याद रहती है बाक़ी
चढ़ने की याद में एक भरा-पूरा दृश्य रहता है बाक़ी
एक देह, दो आँखें, एक इरादा रहता है बाक़ी
और दो-चार संदेह आते-जाते रहते हैं बाक़ी
आग देखो तो आग नहीं है वहाँ, नदी है एक अदृश्य
और नदी देखो तो नदी नहीं है वहाँ,
आग है एक अदृश्य
वृक्षों की तरह रहते हैं विचार भी, वहीं-कहीं
पता नहीं कब आ जाए गर्दन पर धार, वहीं कहीं
सोचना व्यर्थ है कहते हुए भी
सोचता है आदमी, वहीं-कहीं
और ख़ुद को, ख़ुद के लिए ही
ख़र्च होने से बचते-बचाते हुए,
बचता है आदमी
और जो आदमी बचता है इन दिनों
बचते-बचाते हुए ख़ुद को
उसे सिरे से खर्च कर देती हैं सरकारी नीतियाँ
बढ़ते चलो, चढ़ते चलो की गाते हुए पारंपरिक धुन
तभी, देखा तो यहीं गया है, यहीं कहीं
कि आंधियों के भी छूट जाते हैं पसीने
एक लौ बुझाने में
चट्टानों पर चढ़ने की आदत बची रहेगी
एक लौ बची रहेगी ।