एक विराट पवित्रता / रणजीत
ठहरी रहो,
अपनी इन मृणाली बाँहों से मुझे घेर कर इसी तरह ठहरी रहो
जब तक कि तुम्हारे रोम-रोम से
वह अज्ञात सत्य साँसें ले रहा है
जब तक तुम्हारी आँखों में उसकी नीली गहराइयाँ हैं
तुम्हारे गाल उसकी रोशनी से रौशन हैं
तुम्हारे होठों पर उसका स्वाद है
तब तक मुझे घेरे रहो
उस विराट पवित्रता से मुझे छुए रहो
क्योंकि कुछ ही क्षण बाद
अपने आप तुम्हारा आलिंगन ढीला पड़ जाएगा
और हम दो टकराकर कौंध चुके बादलों की तरह
अपने-अपने घायल अस्तित्व को देख रहे होंगे
और सोच रहे होंगे
कि क्यों अब हमारी निकटता बिजली नहीं चमकाती ।
और तब तुम्हारे चेहरे पर उभरती हुई मुस्कान में
मुझे बनावट नज़र आएगी
और मेरे लहज़े से निकलती हुई अभिमान की गंध
तुम्हें असह्य लगने लगेगी
हम फिर स्वयम् के छोटे-छोटे घेरों में घिर कर रह जाएँगे
फिर तुम मेरे लिए किए गए त्यागों का हिसाब करने लगोगी
और मैं तुम्हारे लिए सुनी हुई प्रताड़नाएँ गिनने लगूँगा
तुम मेरे किसी दोस्त की नक़ल निकालोगी
और मैं तुम्हारी किसी सहेली का मज़ाक उड़ाऊँगा,
फिर वही लेन-देन
हिसाब-क़िताब
शिकवा-शिकायत
शायद हमारी क्षुद्र आत्माएँ
उस विराट् को अधिक देर तक धारे नहीं रह सकतीं
इसलिए जब तक तुम्हारे स्पर्श में शिरीष के फूल खिले हुए हैं
तुम्हारे केशों में रातरानी की खुशबू है
तुम्हारी साँसों में इन्सानियत की गर्मी है
तब तक ठहरी रहो,
अपनी मृणाली बाँहों में मुझे इसी तरह घेर कर ठहरी रहो ।