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एक वीरानी है ठहरी हुई जैसे कोई गाँठ सीने में / अशोक कुमार पाण्डेय

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एक धुआँ सा उठा है कसैला जानी पहचानी गंध
एक बीमार चूल्हा ले रहा है अंतिम साँसें
धब्बों सा लपेटे पाउडर गुज़रती है वह कि ठहरी है
तेज़ रफ़्तार कोई गाड़ी गुज़र गई सद शुक्र कि मरा कोई नहीं।।मैं भी नहीं
एक गुबार उठा है धूल का और नशे में घुल मिल गया है
अपनी चप्पलों में चल रहा हूँ जाने कि उस नशे में

एक जलन तेज़ उठती है सीने में
उस औरत के पास खड़ा हो जाना चाहता हूँ
पर मेरा तो कोई ख़रीदार नहीं लफ्ज़ घर छोड़ आया हूँ
देह है उसकी मेरा घर है एक
अपनी अपनी क़त्लगाह में सुरक्षाएँ ढूंढ़ते बिके जाते हैं हम रोज़

लड़खड़ाता हुई एक छाया ढेर हो गयी है दिन के मलबे पर
पौवे की आखिरी बूँद के बाद भीख सी उम्मीद में देखते हुए बोतल की तली
यह मैं था जिसने दिन में कहा था “एक आदत है भीख”
यह मैं हूँ उसके बगल में बैठा भीख की शराब देता।।वह मना कर देता है
उपेक्षा एक आदत है।।कहता हूँ और चल देता हूँ

सायरन की तेज़ आवाज़ सड़कों पर
और धूल का एक गुबार उठता है तेज़ संगीत के साथ
मद्धम चलता हूँ दोनों के बीच बचता बचाता
चप्पल में कोई कंकड़ सा है शायद।।।निकालता नहीं आदत डाल लेता हूँ

कोई गिद्ध आकर बैठ गया है कन्धों पर
कहती है लड़की कौआ है यार।।पर यह आया कहाँ से इस शहर में?
देखो कोई ख़त तो नहीं मेरे लिए उसका
अब बस करो थक गए मेरे कंधे
मेरी उँगली छोड़ो।।छोड़ो मेरे हाथ सुन्न हो गए हैं दोनों
बर्फ नहीं नदी किनारे के पत्थर सा गलते रेत हो रहा हूँ
चिता सी जल रही आँखों में मत ढूंढों कमल की सुर्खी
नींद है ज़रा सी तुम्हारे पास?

नशा है रात के बाज़ार में
नींद न दिन में न रात में

एक पोस्टर मुस्कुराता हुआ कहता साथ चलो मेरे
सिर्फ मैं दे सकता हूँ तुम्हें मुक्ति कहता दूसरा
तीसरे के पास इतिहास है, भविष्य नहीं
काम शक्ति बढ़ाने वाले पोस्टर के ठीक सामने उल्टियाँ करता हँसता है कोई
सब चोर हैं साले

नींद कहीं नहीं है जाओ घर जाओ बाबू
तुम तो मेरे भी किसी काम के नहीं
क्या करूंगी तुम्हारी कविताओं का उनसे बेहतर हैं कच्ची रुई के कपड़े बेकार
दे जाना अगर होंगे घर में पड़े।।सब मंहगा है साला इन दिनों

किसी छत पर पी रहे होंगे दोस्त शराब?
किसी नदी में ठीक इसी वक़्त आया होगा तूफ़ान?
किसी शहर में दंगे हो रहे होंगे ठीक इसी वक़्त?
कौन सा नशा सबसे तेज़ दुनिया में जिससे फिर न वापस आये कोई?

ज़िन्दगी नशा है बाबू
क़िस्मत नहीं होगी तो दया आ जायेगी दोस्तों को
तूफ़ान ठहर जाएगा दंगों में जो मिलेंगे उनके अंग पर होगा तुम जितना ही चाम
जाओ जहाँ मरना है मरो
वही घर है तुम्हारी कब्रगाह मेरी देह जैसे मेरी
हर ज़मीन श्मशान नहीं होती थोड़ी देर में हो जायेगी सुबह।।
रात खराब कर दी तुमने मेरी
हो पचास का नोट तो चलो दो घंटे के घर में
जाने दो नहीं होगा तुमसे।।जाओ घर जाओ ।।
मरो जहाँ चाहे जाओ।।

लौटना कितना सुन्दर शब्द है
सुन्दरता कितना भयानक बिम्ब

थोड़े और धब्बे चाहिए मुझे अपनी आवाज़ों में
अपने चेहरे पर थोड़े और घाव
मन पर आग के कुछ और शोले।।

लौटता हूँ अब!