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एक श्रमिक कवि का स्वप्न / अजय तिवारी / शैलेन्द्र

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लोकसंस्कृति की ऊर्जा और क्रन्तिकारी विचारों का ओज, वास्तविकता का दंश और न्याय का स्वप्न, स्थानीयता की गंध और अंतर्राष्ट्रीयता का विवेक, लोकप्रियता का शिखर और कलात्मकता का संयम—जिस कवि में यह दुर्लभ संयोग मिलता है, उसका नाम है शंकर शैलेंद्र. सृजनात्मकता के आतंरिक ताप में ढलकर दोनों परस्पर भिन्न लगनेवाली प्रवृत्तियाँ शैलेंद्र में एकमेक हो जाती हैं. इस दृष्टि से हिंदी की प्रगतिशील साहित्यधारा ने जो महत्वपूर्ण कवि दिए हैं, उनमें शंकर शैलेंद्र एक हैं. वे उतने ही अनुपेक्षणीय हैं, जितने शील, नागार्जुन या केदारनाथ अग्रवाल. शैलेंद्र के काव्य में संत साहित्य की तन्मयता और श्रमजीवियों का फक्कड़पन ऐसे अनोखे संतुलन में अभिव्यक्त होते हैं कि साहित्यिक लेखन ही नहीं, फिल्म साहित्य में भी उनकी अपनी विशेष पहचान बनती है. यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि अपनी लाचारी में यदि वे फिल्म में न जाते तो हिंदी को एक उत्कृष्ट कोटि के कवि से वंचित न होना पड़ता; और यह भी कि फिल्मों में जाकर भी कुछ अपवादों के अलावा उन्होंने अपना स्तर बनाये रखकर लोकप्रियता अर्जित की. यह ऐसा गुण है जिससे बहुत-से लोगों को ईर्ष्या हो तो स्वाभाविक है.

शैलेंद्र ने अपने साहित्यिक जीवन के दौरान ही यह निश्चय कर लिया था कि उन्हें किसके लिए लिखना है. ‘कवि तुम किनके? किनकी कविता’ में वे कहते हैं :

             जिनके सीने में सुइयों-सा गड़ता है दर्द विवशता का,
             जिनके घर में घुस बैठा है अंधा राक्षस परवशता का,
             जो दुनिया भर का बोझ उठाये रंजोग़म से लड़ते हैं,
             जो अपनी राहें आप बना पर्वत की चोटी चढ़ते हैं,
             कवि उनका है,
             कविता उनकी. (अंदर की आग, संपादक:रमा भारती, राजकमल, २०१३, पृ.१११)

सीधी-सदी भाषा में लेकिन सचाई और दृढ़ता से वे अपना संकल्प व्यक्त करते हैं. उनमें अपनी स्थिति के प्रति आत्मदया की भावना नहीं है. जो रंजोग़म का बोझ उठाने के साथ अपनी राह आप बनाकर पर्वत चढ़ते हैं, उनमें आत्मदया की मध्यवर्गीय बीमारी हो भी नहीं सकती. वे अपने श्रमिक अस्तित्व के प्रति न केवल सजग हैं बल्कि उसे अपनी चेतना की तरह धारण करते हैं. उनका यह अस्तित्व विशेष सामाजिक संबंधों में बना है और वह नितांत निजी नहीं है. अपनी खाली जेबों के साथ दुकान पर जाकर जो माल का मोल देखकर ‘दूर से आहें भर’ रह जाते हैं, ‘फिर भी जो दिल के घाव छुपा हँसते हैं जिंदा रहते हैं’, कवि उन सबका अंश है. दुकानों में माल सजा है तो उसके ग्राहक भी होंगे, जो ग्राहक नहीं है, माल वाली दुनिया से बहिष्कृत है, उनका कवि उनकी ही तरह जीवट वाला है. दिल के घाव छुपाने पर ही हँसी का मर्म समझ में आता है. कहा जाता है कि कारुणिक स्थितियों की पहचान के बिना स्वस्थ हास्य भी पैदा नहीं होता. विवशता और जिंदादिली के सामंजस्य से जो स्वर जन्म लेता है, वह एक तरफ व्यंग्यपूर्ण होता है, दूसरी तरफ ओजस्वी. शैलेन्द्र की कविता में दोनों स्वर निखरे हुए हैं. इसकी चर्चा कुछ देर बाद.

शैलेन्द्र समाज के अत्यंत निम्न वर्ण में पैदा हुए थे. आजकल जिसे दलित अस्मिता कहा जाता है, शैलेंद्र को उससे जोड़ने के प्रयास भी किये जाने लगे हैं. लेकिन उनमें बिरादरीवाद का यह भाव नहीं था. वे अपने को ‘दलित’ नहीं, श्रमिक के रूप में देखते थे. यह उचित भी था. पिछले सात दशकों से हर संघर्ष में लगने वाला यह नारा उन्होंने दिया था—अपनी एक कविता के मुखड़े के रूप में—कि ‘हर जोर ज़ुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है.’ (उप. पृ.८९) अब आवश्यकता के अनुसार लोग-बाग़ ‘हड़ताल’ को ‘संघर्ष’ कर लेते हैं. शैलेन्द्र ने अपने जन्म को लेकर भी लिखा है —

             बुरी घड़ी में मैं जन्मा जब राजे और नवाब,
             तारे गिन-गिन बीन रहे थे अपने टूटे ख़्वाब...(उप. पृ.४३)

व्यंग्य से स्पष्ट है कि यथार्थ का बोध अत्मपीड़ा से बहुत दूर है. कविता का शीर्षक है ‘मुझको भी इंग्लैण्ड ले चलो’ और विषय है महारानी की ताजपोशी. इसी अवसर पर नागार्जुन ने लिखा था, ‘आओ रानी हम ढोएँगे पालकी/ यही हुई है राय जवाहरलाल की.’ शैलेन्द्र की कविता भी शुरू होती है, ‘मुझको भी इंग्लैण्ड ले चलो, पंडितजी महराज.’ व्यंग्य नागार्जुन में है, व्यंग्य शैलेंद्र में भी है. आज़ादी के बाद नए लोकतंत्र में जिन राजा-नवाबों के ख़्वाब टूट रहे थे, ब्रिटिश महारानी की ताजपोशी से उनमें भी आशा जागी थी. आजाद भारत के सत्ताधारी दोतरफा दबाव में थे. एक तरफ भारत की जनता का दबाव, जिसके संघर्षों से आज़ादी मिली थी, दूसरी तरफ राजा-नवाबों का दबाव, जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्ता का संरक्षण प्राप्त था. इन दोनों के बीच संतुलन की कोशिश इसलिए हो रही थी कि आज़ादी ब्रिरिश शासन से समझौते में मिली थी. इसीको अहिंसात्मक बताकर गुणगान किया जाता था. इस जटिल परिस्थिति का चित्रण सबसे सटीक रूप में व्यंग्य ही कर सकता था. इसी कविता में रानी के गुणों का जिक्र करते हुए शैलेंद्र कहते हैं :

              तुम जिनके जाते हो उनका बहुत सुना है नाम,
              सुनता हूँ, उस एक छत्र में कभी न होती शाम,
              काले, पीले, गोरे, भूरे, उनके अनगिन दास,
              साथ किसी के साझेदारी और कोई बेदाम,
              खुश होकर वे लोगों को दे देती हैं सौराज!

अहिंसात्मक आज़ादी को लेकर तत्कालीन वामपंथियों में जो विरोधभाव था, यह उसीकी अभिव्यक्ति है. रामविलास शर्मा, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन की तरह शैलेंद्र ने भी समझौते से आज़ादी लेने के नाटक का विरोध किया. ‘आज़ादी हो तो ऐसी हो/ जो खून बहाए बिना मिले’—ऐसी अनेक कविताओं में उनका यह विरोध बड़े व्यंग्यपूर्ण स्वर में दर्ज है. (पृ.४५) उनके व्यंग्य से मेरा पहला साक्षात्कार प्रगतिशील कविता के सौन्दर्य-मूल्य’ पर शोध-कार्य के दौरान हुआ. ‘हंस’ (नवम्बर १९४८, पृ.१३२) में उनकी कविता छपी थी ‘भगतसिंह से’. काव्यभाषा पर विचार करते हुए इसकी कुछ पंक्तियाँ शोधग्रन्थ में उद्धृत करके मैंने टिप्पणी की थी. पंक्तियाँ है :

               भागसिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की,
               देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फाँसी की...
               मत समझो पूजे जाओगे क्योंकि लड़े थे दुश्मन से,
               रुत ऐसी है, आँख लड़ी हा, अब दिल्ली की लंदन से,
               कामन-वेल्थ कुटुंब देश को खींच रहा है मंतर से,
               प्रेम विभोर हर नेतागण रस बरसा है अम्बर से,
               भोगी हुए वियोगी दुनिया बदल गयी वनवासी की. (अंदर की आग, पृ.८६-८७)

इसपर टिप्पणी थी, “रुत, कामनवेल्थ, अम्बर आदि में हिंदी-उर्दू-अंग्रेज़ी के शब्दों का निबंध व्यवहार ही नहीं, रुत के साथ आँख लड़ने के पूरे प्रसंग में दरबारी और स्वयं उर्दू शायरी के मिज़ाज का और वनवासी के प्रसंग में जनता के मूल्यों से अनुप्राणित भक्ति-साहित्य की आत्मा का कितना सधा हुआ प्रयोग है—यह स्वयंसिद्ध है. संघर्ष के चित्रण में, जनता के सांस्कृतिक जीवन की अभिव्यक्ति में हिंदी-उर्दू का भेद-भाव अधिक नहीं रह जाता....” (प्रगतिशील कविता के सौन्दर्य-मूल्य, १९८४; दूसरा संस्करण, वाणी, २०१६, पृ.२४४) किन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है शैलेन्द्र का व्यंग्य जो इस कविता में ही नहीं, ऐसी अनेक कविताओं में बड़ी प्रखरता से आया है. व्यंग्य की विशेषता यह है कि अनेक परिस्थितियों में वह ज्यों-का-त्यों लागू होता है. भगतसिंह को चेतावनी देते हुए वे कहते हैं —

           ‘यदि जनता की बात करोगे, तुम ग़द्दार कहाओगे—
           बम्ब-सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया कि पह्दे जाओगे!’

मानों यह १९४८-४९ का नहीं, २०१८-१९ की बात हो! कविता जीवन की गहराई में जाकर जो अनुभव लाती है, वे तात्कालिकता का अतिक्रमण कर जाते हैं; समान परिस्थतियों के आने पर उतने ही प्रासंगिक होते हैं. चौथाई सदी बाद भी शैलेन्द्र की ये पंक्तियाँ सटीक इसलिए हैं कि इनमें कवि की अत्म्बद्ध भावना का चित्रं नहीं हुआ है, बल्कि एक जनतान्त्रिक आदर्श की कसौटी पर तत्कालीन शासन की परीक्षा की गयी है और व्यंग्य इसी प्रक्रिया में निर्मित हुआ है. उल्लेखनीय है कि यह व्यंग्य उन्हें आजकल के बहुत-से दलित साहित्यकारों से अलग करता है जो व्यंग्य नहीं, आक्रोश को अपना आधार बनाते हैं. आक्रोश काफी आत्मगत (subjective) भाव है, व्यंग्य उस आत्मगत भाव को साधारणीकृत कर देता है, तात्कालिकता से हटाकर समान अनुभवों से जोड़ देता है, उसे साधारणीकृत कर देता है. यहीं यह कहना भी ज़रूरी है कि व्यंग्य अभिजात वर्ग का सांस्कृतिक हथियार नहीं है, वह जुझारू समुदाय का माध्यम है. अभिजात वर्ग का माध्यम है हास्य, जो अभवग्रस्त जन के उपहास का रूप लेकर आता है. दोनों के पीछे दो सौंदर्य दृष्टियाँ हैं. इस आधार पर हम आज के बहुत-से (सभी नहीं) दलित लेखकों को श्रमिकों की अपेक्षा अभिजन के पक्ष में देखते हैं. इसपर अलग से बहस की गुंजाईश है.

शैलेंद्र का सजग और स्पष्ट चुनाव था कि उन्हें श्रमिकों के लिए लड़ना और लिखना है, उनका अपना अस्तित्व श्रमिक का अस्तित्व था. और श्रमिक के रूप में वे अंतर्राष्ट्रीयता के हामी थे, उनकी अनेक कविताओं में पराधीन देशों के संघर्ष से हमदर्दी और स्वाधीनता या समाजवाद के रास्ते पर आने वाले देशों का समर्थन है; किन्तु वे यह कभी नहीं भूलते कि उनकी अंतर्राष्ट्रीयता का आधार हिंदी समाज से उनका अटूट नाता है. लगभग प्रेम कविता का आभास कराने वाली ‘उदय पंथ से कौन आयेगा’ में वे कहते हैं—‘मैं चिर प्रेमी शैलेंद्र और/ मेरी प्रेयसि हिंदी जनता.’ श्रमिक वर्ग और हिंदी समाज से अपने संबंध की यह चेतना शैलेंद्र को न केवल बहुत-से छायावादी और प्रयोगवादी कवियों से अलग करती है, बल्कि आजकल के बहुत-से दलित साहित्यकारों से भी अलग करती है. कुछ दलित लेखक और सिद्धांतकार जहाँ सत्ता और पूँजी के आगे नतशिर होने में सार्थकता का बोध प्राप्त करते हैं, वहीँ शैलेंद्र उचित स्वाभिमान से कहते हैं—

            मैं किसी धनवान का मुंशी नहीं हूँ
            लिख चला जो कह रहा है प्राण मेरा. (उप. पृ.५५)

हिंदी जनता का प्रेमी श्रमिक कवि ही इस आत्मविश्वास से बात कर सकता है. यह चीज़ उन्हें हिंदी की महान परंपरा से जोडती है. अपनी मौज से लिखना संत कवियों की निशानी थी, प्रगतिशील कवियों की भी निशानी थी. व्यंग्य के लिए जिस फक्कड़पन की ज़रूरत है, वह उन्ही में हो सकती है जो किसी दूसरे के मुखापेक्षी होकर नहीं, अपनी मौज से लिखते हैं. फिल्मों में जाने के बाद भी उनका व्यंग्य अपनी झलक दिखता है—‘दिल का हाल सुने दिलवाला’ जैसे गीतों में वह सुरक्षित है. कविताएँ उन्होंने कम ही लिखीं इसलिए उनकी रचनात्मकता के बहुत से रूप फिल्मों में सामने आये. उनके बहुत-से गीत या तो लोकसंस्कृति से अभिन्न हो गए हैं—‘सजन रे झूठ मत बोलो...’; या संत काव्य के निकट दिखाई देते हैं—‘करमवा बैरी हो गए हमार...’. ‘ना मैं धन चाहूँ, ना रतन चाहूँ’ गीत में वे असाधारण जीवन दर्शन अत्यंत सहज-सरल शब्दों में प्रस्तुत करते हैं—‘थम गया पानी, जैम गयी काई; बहती नदिया ही साफ कहलाई.’ यह सब एक गंभीर कवि के जीवन अनुभव का परिणाम है. वे आज़ादी में मूल्यों-आदर्शो से समझौते का विरोध करते थे तो अपने लिए भी समझौते का रास्ता नहीं अपनाते थे. इसके पीछे एक मजदूर का जीवनानुभव और मजदूर वर्ग की विचारधारा का योगदान है. इसीलिए वे समझौतावादी तो दूर, निराशावादी भी नहीं होते. ‘तीसरी कसम’ फिल्म इसका उदाहरण है. रेणु की वह अत्यंत महत्वपूर्ण और सुंदर कहानी है. लेकिन उसका प्रभाव उनके दृष्टिकोण के अनुरूप निराशावादी है—जैसा उनकी आंचलिकता में सर्वत्र दिखाई देता है. शैलेन्द्र की फिल्म कहानी में तोड़-मरोड़ ज्यादा नहीं करती लेकिन उसका प्रभाव कारुणिक है, निराशापूर्ण नहीं; भले फिल्म की असफलता शैलेंद्र के लिए निराशापूर्ण रही हो.

आक्रोश की परिणति समर्पण में होती है, यह अकविता ने भी सिद्ध किया था. व्यंग्य तो उत्पन्न ही होता है समाज या आचरण की विसंगति से. जो होना चाहिए और जो होता है, उनके बीच फासले से, यानी पाखंड और आडम्बर से. उसे पहचानने के लिए आवश्यक है कि सही-ग़लत का विवेक लेखक में हो. यह विवेक बिना मूल्यबोध के संभव नहीं है. मूल्यबोध इस बात से निर्मित होता है कि रचनाकार समाज के किस समूह या वर्ग से अपना संबंध स्वीकार करता है. उसी से लेखक की दृष्टि बनती है और उस दृष्टि से ही वह सम्पूर्ण जीवन और मानव व्यवहार को देखता-परखता है. अपनी श्रमिक अस्मिता को न स्वीकार करने वाले दलित लेखक वास्तव में मध्यवर्ग या उच्च मध्यवर्ग के लोग हैं. शैलेन्द्र श्रमिक वर्ग के सदस्य थे. हिंदी के महान प्रगतिशील आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा उनके बारे में कहा करते थे कि मराठी में अन्ना भाऊ साठे और हिंदी में शैलेन्द्र समाज के अत्यंत निम्न वर्ग से आये थे, श्रमिकों के बीच उनका अभिन्न अंग बनकर रहते थे और अपनी रचना से उन्होंने संस्कृति के उच्च शिखर छुए. यह बात सही है. प्रगतिशील आन्दोलन की प्रेरणा ने जाति-धर्म से परे नागार्जुन-शैलेन्द्र-मजाज़ को एक समान ऊँचे आसन पर पहुँचाया.

यह सही है कि मजदूर के रूप में जीना, वह भी गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए, बहुत कठिन था. अपने गीतों की लोकप्रियता के कारण शैलेन्द्र को फिल्मों से निमंत्रण मिलता था. खासकर राजकपूर से, जो इप्टा के निकट थे. लेकिन वे अपनी कविताओं के साहित्यिक महत्व से परिचित थे इसलिए ऐसे आमंत्रणों से विचलित न होते थे. किन्तु पहली संतान के जन्म से पहले असहनीय स्थितियों में उन्हें राजकपूर की शरण लेनी पड़ी. यह सोवियत संघ में स्तालिन-विरोधी अभियान का समय था. भारत सहित दुनिया भर के कम्युनिस्ट आन्दोलन पर उसका नकारात्मक असर पड़ा था. शैलेन्द्र को पहली बार ‘बरसात’ फिल्म के गीत लिखने पड़े, जो पहले से बन रही थी. उसका एक गीत था ‘मेंरी पतली कमर, मेरी तिरछी नज़र’! यह संभवतः उनका सबसे निचले पायदान का गीत है. इसके बाद उन्होंने इतने निचले स्तर पर कभी कोई गीत नहीं लिखा. उनके मित्र रामविलासजी ने बताया था कि रूस में स्तालिन-विरोधी अभियान का यह असर हुआ कि शैलेन्द्र जैसा मजदूर कवि भी मेरी पतली कमर बलखाय लिखने लगा. रामविलास जी को शायद इसी रूप में याद रह गया हो. उन्होंने बताया कि शैलेन्द्र जब आगरा गए तो रामविलासजी से बोले, ‘डाक्टर, क्या करें, आस्था का कोई सहारा ही नहीं रहा!’ रामविलासजी ने यह प्रसंग अपनी आत्मकथा में कुछ अलग रूप में दिया है. वे शैलेन्द्र की कमजोरियों पर टिप्पणी नहीं करते.

रूस उन्हें प्रेरणा देता था क्योंकि ‘वहाँ क्रांति की जीत, तुम्हारी पहली हार’ थी; ‘हमने अपनी हस्ती जानी पहली बार’, यह अस्मिताबोध था; और समाज के संगठन में यह परिवर्तन हुआ कि ‘वहाँ सुतार लुहार बने मिल मैनेजर/ राजा नहीं रंक बैठा सिंहासन पर.’ (पृ.३९) इस क्रांति में भटकाव से शैलेंद्र जैसे कवि के मानस पर कैसी हताशा का असर पड़ा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है. आस्था के उस केंद्र के रहने पर शैलेन्द्र ‘पेरिस कम्यून’ की क्रन्तिकारी परम्परा को आगे ले जाने के लिए मार्क्स के बाद लेनिन-स्तालिन को सौ सलाम भेज रहे थे—

                   सौ सलाम लेनिन को, स्तालिन को जिनकी अगुवाई में,
                   जिनके अथक अटूट श्रमों से, कुशल अचूक रहनुमाई में,
                   रूस हुआ आजाद, धरा पर उतरा पहला सुर्ख सवेरा....(पृ.४२)

पेरिस कम्यून और रूसी क्रांति से प्रेरणा मिलती थी क्योंकि वहाँ ‘कुली-कबाड़ी उठे, लुहार-सुतार उठे, हथियार उठाया,/ ज़ुल्मों की छाती पर चढ़कर अपना पहला राज बनाया.’ (पृ.४१) ये हथियार ज़ुल्म करने के लिए नहीं, ज़ुल्मों का अंत करने के लिए उठे थे. इसीलिए समाजवादी व्यवस्था और मार्क्सवादी दर्शन युद्ध के विरुद्ध शांति का—विश्वशांति का—समर्थन करता है. वह अन्याय का अंत करता है. उनका प्रसिद्ध गीत है ‘क्रांति के लिए उठे कदम’. यह गीत क्रांति को सबसे पहले इस बात से परिभाषित करता है कि ‘रात के विरुद्ध प्रात के लिए/ भूख के विरुद्ध भात के लिए/ मेहनती ग़रीब जाति के लिए/ हम लड़ेंगे हमने ली कसम.’ और दूसरा भाग है—‘शांति के लिए उठे कदम.’ शांति की जरूरत इसलिए है कि ‘जंग छेड़ने चले हैं जंगखोर/ ताकि राज कर सकें वे मुफ्तखोर...’ (पृ.१२१-१२२) शांति की जरूरत श्रमिक को है, युद्ध की मुफ्तखोर को. यह ऐतिहासिक अनुभव से सिद्ध है. बीसवीं सदी में दोनों विश्वयुद्ध दुनिया के बाज़ार पर कब्जे के लिए मुफ्तखोरों ने ही छेड़े थे जिनमें कुल मिलकर आठ करोड़ लोगों की बलि चढ़ी थी. शैलेन्द्र की निष्ठा इस ऐतिहासिक अनुभव से पुष्ट है. इसलिए स्तालिन-विरोधी अभियान के बाद उनका जो भी मोहभंग हुआ, वह राजनितिक सत्ता से हुआ, जीवन आदर्श और विचारधारा से नहीं. नेहरु की मृत्यु के बाद ‘चाचा नेहरु’ कविता में उन्होंने कहा, ‘कभी न हो अब जंग ज़मीं पर देश रहें सब मिलकर,/ जंग एक ही हो दुनिया में भूख, रोग और दुःख पर.’ (पृ.१४५) भूख, रोग, दुःख का कारण मुफ्तखोरों का राज है. उसे मिटाकर ही स्थायी शांति कायम हो सकती है, यह शैलेंद्र जानते थे और आज भी यह बात पूरी तरह अटल है.

शैलेंद्र की रचना का दायरा काफी विस्तृत है. निजी जीवन की वास्तविक स्थिति और श्रम का इतिहास, दाम्पत्य प्रेम का सुखानुभव और राजनितिक संघर्षों के उद्बोधन-गीत—उन्होंने अनेक प्रकार की कविताएँ लिखी हैं. किसी में भी छिछलापन नहीं. छात्र जीवन में हम लोगों ने ऐसे कई गीत गाए थे और आज भी आंदोलनों से जुड़े युवा गाते है जो शैलेंद्र के लिखे हुए हैं. ‘क्रांति के लिए उठे कदम’ का ज़िक्र हुआ है. यह जानकर कई नये लोगों को अचरज होगा कि ‘तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर/ अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर’ शैलेन्द्र का ही लिखा हुआ है जिसकी लोकप्रियता आज भी कम नहीं है. (पृ.९३) उनके उद्बोधन गीतों में संघर्ष की प्रेरणा और विजय का संकल्प तो है ही, कठिनाइयों से सावधान रहने की चेतावनी भी है—‘हो सावधान आया तूफ़ान पर दूर नहीं है किनारा.’ (पृ.१३०) जो बात ध्यान खींचती है, वह है अकर्मण्यता को जीवन व्यवहार या जीवन दर्शन के रूप में पूरी तरह अस्वीकार करना.

राजनितिक कविताएँ अपनी प्रासंगिकता सबसे जल्दी खोटी हैं. इसका कारण तात्कालिक घटनाओं पर उनका निर्भर होना है. लेकिन नागार्जुन-केदार की तरह शैलेंद्र की कविताएँ भी अपना महत्व बनाए रहती हैं. पं. नरेंद्र शर्मा ने ‘यकुम मई’ या ‘लाल रूस’ जैसी प्रसिद्द राजनितिक कविताएँ लिखी थीं. इन्हें साहित्यिक पत्रकारिता के श्रेष्ठ उदहारण कहा जा सकता है. उसी तरह शैलेंद्र ने ‘नया चीन’ लिखी है. अन्य बातों के अलावा यहाँ उन्होंने बहुत अच्छी तरह दिखाया है कि शोषण के साथ ‘राष्ट्रवाद’ का कितना गहरा संबंध है—‘राष्ट्रवाद की आस्तीन में पीले नाग पला करते थे’! (पृ.८३) आज यह चेतावनी ज्यादा सार्थक है! इसी प्रकार ‘पंद्रह अगस्त के बाद’ कविता में आजाद भारत की राजनितिक शक्तियों का विश्लेषण करते हुए वे बताते हैं कि जनता से ‘खद्दरजी बोले’— ‘तुमको भूख नहीं है भाई,/ कम्युनिस्टों ने है भड़काया!’ (पृ.७८) अब इस सलाह में खुद ‘खद्दरजी’ शामिल कर लिए गए हैं! मुख्य बात यह है कि अपनी असफलताओं के लिए सत्ताधारी कोई न कोई बहाना खोजते हैं. इस बहानेबाज़ी में वास्तविकता (भूख) को झुठला दिया जाता है, काल्पनिक भय या शत्रु खड़ा कर दिया जाता है. यही प्रवृत्ति धर्म और अंधविश्वास के उपयोग तक जाती है. जैसे-जैसे पूँजीवादी विकास और निजाम का संकट बढ़ता गया है, वैसे-वैसे काल्पनिक शत्रुओं पर, धर्म और अन्धविश्वास पर निर्भरता भी बढती गयी है.

संघर्ष का कवि प्रेम और सौन्दर्य से दूर नहीं रहता. ‘मेरी सुबह किसी ने छीन ली है’ कविता में वे मजदूर की कठिन ज़िन्दगी से संवेदनशील कवि के यातना-बोध का टकराव चित्रित करते है. इसीलिए न भावुकता है, न अतीतमोह. वर्तमान यह है कि ‘अब रात है, दिन है/ शाम भी है.../विश्राम भी है, लेकिन मेरी सुबह छिन गयी है.’ उस सुबह का आकर्षण इसलिए है कि ‘धीरे से अंधकार के पर्दे हटा कर वह आती थी,/ और हलके से मेरी आँखें चूमकर मुझे जगाती थी,/ खिड़की में खड़ा मैं देखता.../ मेरे सपने फूल बन गए हैं/ मेरे गीत पंछी बन गए हैं/ फूल मुस्कुराते हैं/ गीत चहचहाते हैं!’ (पृ.११२-१३) जो छूट गया है, वह अत्यंत मानवीय है, इसलिए उसकी पीड़ा का बोध संघर्ष की ओर ले जाता है, किसी प्रकार की विस्मृति में नहीं ले जाता. प्रकृति के साथ-साथ पत्नी से प्रेम का अनुभव भी है. प्रगतिशील कवियों की तरह शैलेन्द्र ने पत्नी-प्रेम पर ही कविताएँ लिखी हैं, परकीया-क्रांति नहीं की है. ‘यदि मैं कहूँ’ वे कहते हैं :

                     यदि मैं कहूँ कि हे मायावनि
                     तुमने तन में प्राण भरा है,
                     और तुम्हीं ने क्रूर मरण के
                     कुटिल करों से मुझे हरा है—
                     बोलो, तुम विश्वास करोगी? (पृ.१०५)

यह स्वर केदार या नागार्जुन के कितना निकट है, कहने की जरूरत नहीं. उनके भावबोध को समझने में इस बात से मदद मिलती है कि उनकी तन्मयता उन्हें लोकसंगीत के इतने निकट ले आती है कि शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य का अंतर मिट जाता है. ‘रेन घिरी कजरारी’ की पंक्तियाँ देखिए :

                    उपटन को तरसे तन मोरा, काजर को दो अँखियाँ,
                    माँग सुहाग को तरसे मोरी, लोग करें सौ-सौ बतियाँ...(पृ.१४६)

भावुकता से दूर, जीवन की वास्तविकता को आत्मसात करके, निजी पीड़ा और सामाजिक वेदना का सही अनुपात पहचानकर, लोकसाहित्य की संवेदना और अपनी अभावुक सहृदयता से रचनाओं का संसार निर्मित करने वाले शंकर शैलेन्द्र हिंदी की अनिवार्य धरोहर हैं. उन्होंने फिल्म साहित्य को ही नहीं, हिंदी के काव्य साहित्य को भी अपनी कला से सम्पन्न किया है. जिस तरह नागार्जुन और पढ़ीस प्रगतिशील आन्दोलन में किसान स्वर के प्रतिनिधि है, उसी तरह शील और शंकर शैलेंद्र मजदूर चेतना के प्रतिनिधि हैं. दोनों ने मिलकर न केवल प्रगतिशील साहित्य को, बल्कि आधुनिक हिंदी कविता को भी जनसंघर्षों के निकट पहुँचने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है.