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एक संवाद / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय

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क्या तुम मेरा प्यार चाहते हो?
-हाँ, चाहता हूँ।
लेकिन कीच से लिथड़ी पड़ी उसकी देह?
-जैसी भी है, मुझे प्रिय है।
मेरा आखि़री वक़्त कैसा होगा, बताओगे?
-ठीक है, पूछो।
मैं कुछ और भी पूछना चाहती हूँ-
-पूछो।
मान लो मैंने कुंडी खटखटाई।
-मैं हाथ पकड़कर अन्दर लीे जाऊँगा।
मान लो मैंने तुम्हें याद किया।
-मैं खि़दमत में हाजिर हो जाऊँगा।
और इसमें कोई मुसीबत आन पड़े।
-मैं उस मुसीबत में कूद पडूँगा।
अगर मैंने तुम्हारे साथ कोई धोखा किया।
-मैं माफ़ कर दूँगा।
अगर तर्जनी उठाकर तुमसे कहूँ, गाना गाओ-
-मैं गाना गाऊँगा।
मैं कहूँ कि किसी घर आए दोस्त के मुँह पर किवाड़ दे मारो।
-तो मैं किवाड़ भिड़ दूँगा।
मैं कहूँ, उसे ख़तम कर दो।
-मैं कर दूँगा।
अगर कहूँ, अपनी जान दो।
-दे दूँगा।
अगर मैं डूब रही होऊँ
-मैं बाहर खींच लाऊँगा।

और अगर इसमें परेशानी हो?
-मैं झेल लूँगा।
और अगर इसमें कोई दीवार आड़े आए?
-उसे ढहा दूँगा।
अगर कोई फनदा डला हो?
-काट डालूँगा।
और अगर इसमें सौ-सौ गाँठें पड़ी हों?
-तो भी

तुम तो मेरा प्यार चाहते हो न!
-हाँ, तुम्हारा प्यार।
यह तुम्हें कभी नहीं मिलेगा
-लेकिन क्यों?

वजह यह कि जो होते हैं बिके हुए गुलाम
मैं उन्हें कभी प्यार नहीं करती।