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एक सपना था ख़्वाब थे वो दिन / परमानन्द शर्मा 'शरर'

एक सपना था ख़्वाब थे वो दिन
आप अपना जवाब थे वो दिन

आप थे मैं था और रंगे बहार
कैसे आली जनाब थे वो दिन

रक़्स करता था हुस्न हर शै में
था बस अपना शबाब थे वो दिन

यूँ गए जैसे आए थे न कभी
ख़्वाब थे या हुबाब थे वो दिन

ज़िन्दगी के दरीदा बाबों में
मआनी-ए-सद किताब थे वो दिन

कितने लम्बे हैं हिज्र के लम्हे
बीते कितने शताब थे वो दिन

एक नश्शा -सा तारी रहता था
हासिले-सद सराब थे वो दिन

अब पलट कर न आ सकेंगे ‘शरर’
उम्र में इन्तिख़ाब थे वो दिन