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एक सम्बोधन / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
Kavita Kosh से
आज तुझ को पत्र लिखने का हुआ है मन!
रात बीती, लिख न पाया एक सम्बोधन!
एक सम्बोधन!
शब्द खो कर रह गये हैं ध्वनि-तरंगों में,
हाथ आ-कर छूट जाते मणि, तरंगों में
आँख से रिसने लगा है एक जलप्लावन!
रात बीती, लिख न पाया एक सम्बोधन!
एक सम्बोधन!
प्राणपण से रच रहा था मैं प्रणय-पाती,
क्या करूँ, जो बुझ गयी नि:श्वास से बाती,
थरथराते देर तक, भूकम्प के डॉ क्षण!
रात बीती, लिख न पाया एक सम्बोधन!
एक सम्बोधन!
उड़ गया जुगनू मुझे छू, मूर्छना टूटी,
सर्जनातुर उँगलियों से लेखनी छूटी,
मैं हुआ-जाता अनागत गीत का गुन्जन!
रात बीती लिख न पाया एक सम्बोधन!
एक सम्बोधन!