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एक साथ आग / स्वप्निल श्रीवास्तव

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चूल्हे में अधजली लकड़ियाँ जलती हैं

वे धुँआती हैं बिन खिड़की वाली कोठरी में

दिन में भी अंधेरा रहता है कोठरी में जिसमें

हथेलियाँ और चेहरे स्पष्ट नहीं दिखाई देते

रात में पहाड़ की तरह और कठिन हो जाता है अंधेरा


चूल्हा जलता है

मज़दूर साहूकार के पास जाता है

अन्न लेने

अदहन खौलता है

औरत इंतज़ार करती है

कि अब अन्न आए...

कि अब अन्न आए

बच्चे चूल्हे की तरफ़ देखते हैं

औरत अदहन की तरह चूरती है


मज़दूर को उधार देने से मना कर देता है महाजन

मज़दूर आता है

थमी हुई पृथ्वी की तरह

थिर हो जाता है घर की धुरी पर


बच्चे कुछ कहना चाहते हैं

मज़दूर जान जाता है

आँखों ही आँखों में कि क्या कहना चाहती है औरत

अब बहुत तेज़ी से खौलने लगता है अदहन

भाप इतनी शक्तिशाली कि पतीली ही उ़ड़ा ले जाए

धुँआती हुई हवा आती है

गोड़ से गिरा देती है अदहन

आग लपट के साथ ऊपर उठती है फिर बुझ जाती है

भीतर जलती भूख की आग शान्त नहीं होती है

वह एक मज़दूर औरत और बच्चों के बीच

जलती रहती है