एक स्वप्न के साकार होने का सुख / राजेश चेतन
भिवानी परिवार मैत्री संघ के समस्त कार्य की धुरि जिस वाक्यांश के इर्द-गिर्द घूमती है,- हमारी माटी, हमारी विरासत’। माननीय महावीर प्रसाद जी ‘मधुप’ भिवानी की विरासत के ऐसे महत्त्वपूर्ण अंश हैं जिनके बिना भिवानी का साहित्यिक तथा सांस्कृतिक इतिहास किंचित अधूरा है। काव्य की नैसर्गिक प्रतिभा से सुसज्जित मधुप जी का व्यक्तित्व स्वयं में अद्वितीय था।
मैं व्यक्तिगत रूप से भिवानी की मिट्टी से जुड़े हर व्यक्तित्व से बहुत अपनापन महसूस करता हूँ। इसलिए जब भिवानी परिवार मैत्री संध की स्थापना हुई तभी से मेरे मन में उत्कंठा थी कि मधुप जी के जन्मदिवस को उत्सव की तरह मनाया जाए। कहते हैं सत्पुरूषों का आशीर्वाद सदैव फलीभूत होता दिखाई देता है, शायद ऐसा ही कोई आशीर्वाद रहा होगा जो यह उत्कंठा पूरी होती दिखाई देने लगी। लेकिन इससे भी अधिक सुखद बात यह है कि इस इच्छा की पूर्ति के साथ ही एक और पुरानी इच्छा भी पूरी हो रही है। और वह है मधुप जी के साहित्य के प्रकाशन की मेरी अभिलाषा।
इस विषय पर अनेक बार मधुप जी के परिवार से चर्चा हुई किन्तु अब जाकर यह सपना साकार हो पाया है। वास्तव में मधुप जी का साहित्य जन-उपयोगिता के मूल्यवान तत्वों को निज में समाहित किए हुए ऐसा साहित्य है जो सूक्तियों के माध्यम से समाज में क्रांति तथा चेतना का प्रादुर्भाव करने की झमता रखता है।
दर्शन, शृंगार, राष्ट्रीयता, उत्साह, सकारात्मकता, हास्य-व्यंग्य, गाम्भीर्य तथा विचार जैसे तमाम तत्व मधुप जी की कविताओं में विविध स्थानों पर अनोखे ढंग से उतरे हैं। प्रस्तुत संग्रह में राष्ट्रप्रेम तथा गम्भीर सामाजिक विषयों पर लिखा गया उनका काव्य तो है ही, साथ ही साथ पौराणिक संदर्भों के आधार पर लिखा गया उनका विलक्षण साहित्य भी समाहित है। पार्थ और उर्वशी संवाद का कविताकरण स्वयं में एक अनुशंसनीय प्रयोग है। उक्त कविता एक पौराणिक घटना की याद तो दिलाती ही है साथ ही पाश्चात्यता और भोग की अंधी दौड़ में सभ्यता और संस्कारों को पीछे छोड़ रही मानसिकता को दो पल ठहर कर सोचने के लिए विवश भी करती है।
‘स्वान्तः सुखाय’ की भावना से रचनाकर्म में तल्लीन रहे रचनाकार को ‘सर्वजन’ को उपलब्ध कराने की जो मेरी मंशा थी, वह इस प्रथम काव्य-संग्रह के साथ पूरी हो सकती है। इस पुनीत कार्य के लिए मैं मधुप जी के तीनो पुत्रों सर्वश्री सुधाकर गुप्ता, कुसुमाकर गुप्ता तथा सतीश गुप्ता को कोटिशः बधाई देता हूँ और स्वयं को आश्वस्त करता हूँ कि ‘माटी अपने देश की’ से प्रारंभ हुआ यह क्रम ‘मधुप-समग्र’ तक की यात्रा तय करेगा! अस्तु!
-- राजेश ‘चेतन’