भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एडिनबरा में ‘माल्या’ / पद्मजा शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


एडिनबरा के एक घर में
माल्या को उसकी माँ सिखाती है हिंदी
पर बोलने में वह करता है आनाकानी
हो गया है ज़िद्दी
पूछता है सवाल दर सवाल

मेरी भाषा और बच्चों से अलग क्यों है
मैं सीख रहा हूँ हिंदी
तो ये क्यों नहीं
क्या ये मेरे भाई-बहन नहीं
ये नहीं तो फिर कौन हैं
कहाँ हैं ‘ग्रांड पा’, ‘ग्रांड माँ’

यह इनका है तो मेरा देश कौन-सा
वह रहना चाहता है वहाँ
जहाँ सब बच्चे उसके जैसे दिखते हों
उसकी भाषा बोलते-समझतें हों
उसके जैसा खाते-पीते हों
लड़ते-झगड़ते हों

हद तो तब हुई जब एक दिन
रूआंसा हो कहने लगा माल्या
‘ममा ! इण्डिया चलो’
‘चलेंगे बेटा ! अगले बरस’
‘नहीं, अभी के अभी चलो’

‘बात क्या है बेटा’
‘ममा यहाँ की ‘डक’
अंग्रेजी समझती है, हिंदी नहीं
वह यहाँ वाले बच्चों से बात करती है, मुझ से नहीं’

माल्या अकेला उदास है
अपनों से दूर अनजानों के पास है

माल्या को ‘इण्डिया’ आना है
जहाँ उसे समझे उससे बात करे
कम से कम ‘डक’ तो
माल्या का बाल मन घुट रहा है
भीतर धुआँ-सा उठ रहा है

माल्या एक अकेला नहीं
जो गीली लकड़ी-सा सुलग रहा है
भीतर कुछ जलकर नष्ट हो रहा है

ऐसे कई माल्या हैं
जो पूछ रहे हैं सवाल
पर मिलते नहीं जवाब।