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एनजीओ वाले लड़के के लिए / दोपदी सिंघार / अम्बर रंजना पाण्डेय

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मैं तो आ गई आधी रात
भरी बरसात में तुझसे मिलने
जंगल इतना घना था कि केसों में
मेरे उलझे थे मेंढक
पैर में हरे हरे सांप

जब तक सब सेवा की
लाई पानी भर, रोटी बनाई, कपडे धोए
रात बिछ गई चादर बनके तेरी खाट के ऊपर

तूने रगड़ा मुझे तूने बापरा मुझे
फिर दातुन जैसी जब तार तार हो गई

तूने दी पांचसौ की बक्शीश
बोला, देखा है नोट पांचसौ का कभी तूने दोपदी'

जब बोल नहीं पाई
आज कविता में कहती हूँ
'मैंने देखा नहीं ऐसा आदमी भी कभी
हम जंगल के जीव
निभाते है मोह रखते है लाज ।