एल्यूमिनाई मीट / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
ज़िक्र उस रोज़ का है
कॉलेज में ‘एल्यूमिनाई मीट’ थी शायद
जब देर तक सफ़ेद दिन की सतह पर
कुछ उदास और हसीन ख़्वाब उगते रहे
जैसे अपनी ही शाख़ों पर फूल आता है
हज़ारों रंग, हज़ारों यादें थीं शामिल जिसमें
कई परतों में कोई शख़्स फिर बिखरने लगा
चेहरा, जिस पर उम्र का अफ़साना था
और पलकें थीं तज़ुर्बे के एहसास से भारी
गुलमोहर की अब भी महक थी बालों में
रजनीगंधा की ख़ुशबू खो गई थी कहीं
बस एक लम्स में यह ख़्याल उभरा था
हथेलियों में वही पीला गुलाब ज़िंदा था
बेवजह मेरी मायूस उंगलियों ने जब
एक रिश्ते की तरफ रूख़-सा किया
बहुत सम्भाल कर रखा था क़दम उसने
जब साँस के टुकड़े को छुआ था मैंने
उस नर्म-से लम्हे का दर्द फूट पड़ा
एक नूर था, जो हर तरफ फैल गया
सूखी हुई आँखों से समंदर निकले
कुछ प्यार में डूबे हुए मंज़र निकले
वो ख़्वाब था या ख़्वाब की परछाई थी
मुद्दतों बाद मगर ऐसी घड़ी आई थी
‘एल्यूमिनाई मीट’ तेरा शुक्रिया कहूँ न कहूँ
किस क़दर ज़ीस्त हुई ख़ुशनुमा कहूँ न कहूँ