भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एहसास / निदा नवाज़
Kavita Kosh से
धूप आज भी
उतरी थी कुएं की सीढ़ी
मेंढक टर्राने लगा आज भी
हर दिन की तरह
कुएं की रिसती दीवारों से
उठने लगी आज भी
उज्ज्वल महक
कुछ पल के बाद
धूप आज भी चढ़ी दबे पांव
कुएं की सीढ़ी
फिर से घिर गया कुआं
अँधेरे से
मेंढक कल की आशा लेकर
सो गया
और कुएं की नम-आलूद
दीवारों से
धूप के चलते ही
फिर से रिसने लगे
वेदना व्यथा के आंसू.