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ए. जी / शिव मोहन सिंह

धड़कन-धड़कन गीत रचे हैं,
ए जी! तुम भी स्वर दो ना !
शब्द-शब्द में ताल छंद लय
राग वसंती भर दो ना !!

उबटन-उबटन देह हुई है,
जैसे फागुन फूटा हो।
अमियों वाली डाल हिलाकर
बाग़ किसी ने लूटा हो।

आज वसंती सगुन बना है,
भाव कुसुम को वर दो ना!!

डगर-डगर की सौ-सौ चालें
कदम-कदम पर ढलना है।
चढ़ती धूप तपन को आतुर
छाँव-छाँव का छलना है।

मौसम-मौसम दर्द बढ़ा है,
आकरअब तो हर दो ना!!

बदल रहे हैं तौर-तरीके
पल-पल में पुरवाई के ।
मिलते नये नये सम्बोधन
मौसम की अंगड़ाई के ।

तुमने ही जब गगन दिया है ,
उड़ने को भी पर दो ना!