ऐ! मौत / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'
न कोई राग , न द्वेष
न शिकवा, न शिकायत तुझसे !
मौत! बस तेरी ओर ही तो
खिंचता चला आ रहा हूँ मैं!
ज़िंदगी पर जीत की ख़्वाहिश लिए
हर पहर लड़ता ही रहा हूँ मैं,
और ज़िंदगी भी तो तेरी तरह हर पल
शिकस्त देने की कोशिश पर कायम है!
और सफर में मैं भी
शायद औरों की तरह बिल्कुल खाली हाथ
तो नहीं ही रहा हूँ अब तक,
दो पहर की रोटी जुटा लेना भी तो
कुछ सितारे अपने हौसले से
दामन पर टांकने जैसा ही तो है!
और कुछ नायाब सितारे, जहाँ
पहुँच ही न सकें मेरे हाथ अभी -
किस्मत और मेहनत के भरोसे
छोड़ रखे हैं मैने,
पर अब भी कुछ लोग हैं जो मुझसे
बहुत फासला लिए
ध्रुव तारा बने बैठे हैं,
और हैं कुछ वैसे भी तो हैं
जो अब भी रेंग रहें हैं ज़मीन पर!
जिनको मुट्ठी भर अपने हिस्से की
रोशनी भी मयस्सर नहीं।
पर ये अनवरत चलती
जिंदगी की जंग में
किसी नतीजे पर पहुंचने की
हिम्मत आज भी नहीं है मुझमें
क्योंकि जानते हैं आप, और मैं भी
वक्त के आगे किसी की नहीं चलती!
आज भी बहुतेरे ज़ज्बे
और कर्तव्यों से भरी
मटमैली गठरी को मैं
कुछ सपने और कुछ उम्मीदों के सहारे
फख्र से पीठ पर लादे फिरता हूँ
ऐ मौत!
जब कभी किसी मोड़ पर
मिलूंगा तुझसे तो पूछूँगा
मंजिल मेरे ज़ीस्त की
तय कर ही रखी थी जब तुमने,
फतह और शिकस्त का इस खेल में
कोई दस्तूर ही न था,
तो फिर मेरा यूँ इम्तिहान
उम्र भर क्यों चलता रहा ?