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ऐंठन एखनहुँ धरि / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि

जरि गेल जौड़ जरि जाओ, मुदा
ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि।

मानव नहि बनि सकले मानव,
कतबो कहब कदापि न मानब,
जनले जे अछि बात ताहि लय
कतबो कूदब, कतबो फानब,
औषधि-बाड़ी करू, मुदा
भीतर अँतरी धरि सड़ले अछि।
ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि।

सब क्यो अगिला अपन बनाबय,
सबतरि आसन अपन जमाबय
पाथर सन जे अछि कठोर
तकरा रौदक धाही न घमाबय
जे गड़ि गेल पाँकमे पहिने
से एखनहुँ धरि गड़ले अछि।
ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि।

रोपल गेल विषक जे लत्ती
से मुरछल नहि एक्को रत्ती,
बैसत ऊँट कोन गर धय से
जानथि आब स्वयं भगवती,
जे गौरवसँ अकड़ि चलै’ छल
सहजहिं आब अकड़ले अछि
ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि।

पजरल छल कनि´टा चिनगी,
जे लेलक संसारक जिनगी,
भीतर-भीतर धुँआ रहल अछि,
निश्चय पहुँचत जा कय फुनगी,
आब मिझायल छी बुझैत, तँऽ
भ्रम थिक, आब पजरले अछि।
ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि।

सब छथि अपने गाल फुलौने,
होयत आब की घाड़ भुलौने,
जनिके छलहुँ मिलौने सब मिलि
सैह लोकनि छथि आइ हुलौने,
बुन्देँ-बुन्देँ भरल घैल जे पापक
आब अफड़ले अछि।
ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि।

बहुतो गूड़-चाउर चिबबै’ छथि,
पाकल बाँस कते’ लिबबै’ छथि
छथि सँसारक कते’ अभागल
जे एखनहुँ धरि मूँह बबै छथि,
किछु बुझैत छथि ‘झड़ले अछि’
ऐंठन एखनहुँ धरि पड़ले अछि।

रचना काल 1949