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ऐसा कैसा मरना / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

क्या यूँही चुपचाप चले जाओगे?
अपने बाजुबल से
क्या धरा को न थर्राओगे?
क्या आसमाँ को
सिर पे ना उठाओगे?
क्या कोई शिलालेख ना लगवाओेगे?
कम-से-कम
अपने घर के सामने
अपने नाम की तख्ती तो लगा लो
अरे, अरे!
माफ करना भाई
भूल गया
मरे हुए का कौन सा घर होता ह
राख तक तो बहा दी जाती है
समाधि लायक तुम हो नहीं
वर्ना किसी भी कीमती जगह को
तुम्हारे नाम कर देते
तुम्हारी कब्र को फूलों से भर देते
कुछ संतरी भी तुम्हारे आस-पास रहते
अकेलापन न काटता रातों को
दिन की तेज गर्मी में भी
समाधि के अंदर चैन रहता
पर अफसोस
मेरे प्यार सम्मानित नागरिक
तुम बेघर हो
तुम बेकार हो
तुम हाथ फैलाने को मजबूर हो
धिक्कार है तुम पर
इतना गिर गये
कि माँगना भी शुरु कर दिया
क्या तुम्हें आदत नहीं पड़ी
भूखा रहने की?
क्या तुम्हें आदत नहीं पड़ी
ऋतुओं की मार सहने की?
चिथड़ा-चिथड़ा जिंदगी से
मरकर भी क्या करोगे?
और इससे बदतर तो मौत भी क्या होगी?
फिर भी मेरे प्यारे सम्मानित नागरिक
कहो, मैं तुम्हारी क्या मदद करूं?
सुझा सकता हूँ मैं तुम्हें
मरने के कई रास्ते
गिरो इतनी ऊँचाई से
कि धरा भी काँप जाये
गिरो इतनी ऊँचाई से
कि बिजली भी शर्म खाये
गिरो-गिरो
जल्दी गिरो
वक्त नहीं है मेरे पास
मुझे औरों को भी
मरने के कई तरीके बताने हैं
अब ये मत कहना
तुमने जहर खा लिया है
अब ये मत कहना
तुमने कर्ज ले रखा है
मौत
तुम्हारी परेशानियों का अंत नहीं
क्योंकि सरकारी दावों में
इन कारणों से कोई नहीं मरता
मेरे ऊपर विश्वास करो
मेरे बताए उपाय आजमाओ
वर्ना बाद में बहुत पछताओगे
मेरा क्या है
मैं तो कोई और शिकार ढूँढ लूँगा
मरने वालों की आजकल कोई कमी नहीं
और किसे परवाह है इन बातों की
मेरे भाई
मेरे प्यारे नागरिक
क्या करूँ, मैं बड़ा संवेदनशील हूँ
मुझसे किसी का दुख देखा नहीं जाता
बस कोई मरे तो शांति से मरे
झटके से मरे
दूसरों पर न गिरे
क्योंकि फिर दूसरे भी
समय से पहले ही
स्वर्गवासी हो जायेंगे।