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ऐसा कोई भी पुल / दिनेश जुगरान

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आँखें पुरानी हैं या जिस्म
यह निश्चित नहीं है

हाँ, कहानी उसकी ज़रूर,
सदियों पुरानी है

चेहरा नहीं लगता
उसके जिस्म का हिस्सा
फिर भी एक पूरा बयान है
चलना उसके उठते-गिरते पैरों का

किधर जाता है रोज़ सबेरे
ये मालूम नहीं
शाम जरूर रोज़ाना कटती है
किसी टूटे टपरे की छांव में

वैसे अख़बारों में हर सबेरे
हर महफ़िल में हरदम उसी का ज़िक्र होता है
लेकिन धूप उसके आँगन की
आज भी बेमानी है

उसको मालूम है शायद
हिस्सा है वह हमारी ही साज़िश का
हँसी इसीलिए उसकी
बड़ी सयानी है

कभी मिलो अगर उससे
कटकर अपनी दुनियादारी से
लौटा देगा वह तुम्हारी
सारी औपचारिकताओं को
प्रार्थनाओं की तरह
मतलब नहीं उसे
तुम्हारी क्षणिक
टूटने, जुड़ने की प्रक्रिया से

जातना है वह
बना नहीं अभी तक
ऐसा कोई भी पुल
जो जोड़ता हो तुम्हारे घर को
उसकी गली से