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ऐसा ही प्रण / शमशेर बहादुर सिंह

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सॉनेट और त्रिलोचन : काठी दोनों की है

एक । कठिन प्रकार में बंधी सत्य सरलता ।


साधे गहरी सांस सहज ही...ऎसा लगता

जैसे पर्वत तोड़ रहा हो कोई निर्भय

सागर-तल में खड़ा अकेला; वज्र हृदयमय ।


नैसर्गिक स्वर में जब ऐसी गूढ़ अगमता

स्वयं बोलती हो जो युग की अवास्तविकता

को मानो ललकार रही हो, तब नि:संशय

अंतस्तल खिल-खिल जाता : चट्टानें भीतर

दुखती-सी कसमस जीवन की ।

-बढ़कर उन पर


सीधी चोट लगाऊं, उनको ढाऊं बरबस

डूबी हुई खान की निधियां अपनी सरबस !

लाऊं ऊपर ! अपने अंदर ऐसा ही प्रण

लिए हुए हैं शायद सॉनेट और त्रिलोचन ।


(रचनाकाल :1957)