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ऐसा हो...!!! / अनुपमा पाठक
Kavita Kosh से
मान-अभिमान से परे
रूठने-मनाने के सिलसिले-सा
कुछ तो भावुक आकर्षण हो !
किनारे पर रेत से घर बनाता
और अगले पल उसे तोड़-छोड़
आगे बढ़ता-सा
भोला-भाला जीवन दर्शन हो!
नमी सुखाती हुई
रूखी हवा के विरुद्ध
नयनो से बहता निर्झर हो !
परिस्थितियों की दुहाई न देकर
अन्तःस्थिति की बात हो
शाश्वत संघर्ष
आत्मशक्ति पर ही निर्भर हो !
भीतर बाहर
एक से...
कोई दुराव-छिपाव नहीं
व्यवहारगत सच्चाइयाँ
मन प्राण का दर्पण हो!
सच के लिए
लड़ाई में
निजी स्वार्थों के हाथों
कभी न आत्मसमर्पण हो !