भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसी मन ने मार लगाई / संत जूड़ीराम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसी मन ने मार लगाई।
गोटा खात लौटे नहिं हेरत भजन दयो बिसराई।
दौरत फिरत चहूँ दिस व्याकुल झूठो भार लदाई।
आयो नहीं विवेक एक मत दुबदा गाँठ बँधाई।
ज्यौं साबक रब नीर निरख कर ध्यावत अपन भुलाई।
मिलहिं न जल खल जीव गमायो धाय-धाय मर जाई।
तन बंदर मन कर्म कलंदर घर-घर भीक मँगाई।
जूड़ीराम नाम बिन चीन्हें डगरे भूल गमाई।