भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसी हवा चले / यश मालवीय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

काश तुम्हारी टोपी उछले ऐसी हवा चले,

धूल नहाएँ कपड़े उजले ऐसी हवा चले ।



चाल हंस की क्या होगी जब सब कुछ काला है,

अपने भीतर तुमने काला कौवा पाला है,

कोई उस कौवे को कुचले ऐसी हवा चले ।



सिंहासन बत्तीसी वाले तेवर झूठे हैं,

नींद हुई चिथड़ा, आँखों से सपने रुठे हैं,

सिंहासन- दुःशासन बदले ऐसी हवा चले ।



राम भरोसे रह कर तुमने यह क्या कर डाला,

शब्द उगाये सब के मुँह पर लटका कर ताला,

चुप्पी भी शब्दों को उगले ऐसी हवा चले ।



रोटी नहीं पेट में लेकिन मुँह पर गाली है,

घर में सेंध लगाने की आई दीवाली है,

रोटी मिले, रोशनी मचले ऐसी हवा चले ।