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ऐसे करील फूले / पुरुषोत्तम प्रतीक
Kavita Kosh से
करके तबाह चूल्हे
ऐसे करील फूले
सब कुछ करील भूले
आँधी पड़ हुई है
घर ख़ून की सुराही
कुछ माँस के खिलौने
पीले पड़े हुए हैं
हाड़ों का एक थैला
आकाश देखता है
यह अपशकुन सरासर
फिर भी गुनाह दूल्हे
ऐसे करील फूले
काँटे बने सिपाही
चेहरे गुलाब इनके
पत्ते नहीं तो क्या है
हरी शाख तो हरी है
हैं गाँव-गोहरे तक
फैली हुई जमातें
ठेंगा दिखा-दिखाकर
मटका रही हैं कूल्हे
ऐसे करील फूले
’रचनाकाल : 04 जनवरी 1979