भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसे मैं तन्हाई के पँजे से बाहर आ गया / अमित शर्मा 'मीत'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसे मैं तन्हाई के पँजे से बाहर आ गया
जैसे कोई जान के ख़तरे से बाहर आ गया

कुछ दिनों बेचैनियाँ घेरे रहीं मुझको मगर
वक़्त बीता और मैं सदमे से बाहर आ गया

मुझको बाहर की घुटन महसूस करनी थी ज़रा
सो मैं ख़ुद ही एक दिन पिंजरे से बाहर आ गया

बैठते ही याद जब पिछले सफ़र की आ गयी
रो पड़ा औ रेल के डिब्बे से बाहर आ गया

भूलना चाहा मगर इक रात उसके ख़त के साथ
उसका चेहरा याद के मलबे से बाहर आ गया

उसके घर की ओर मेरे पाँव जब चलने लगे
एक रस्ता ख़ुद-ब-ख़ुद नक़्शे से बाहर आ गया

आख़िरी बोसा था उसका और वह जाने को था
फिर हुआ कुछ यूँ कि मैं सपने से बाहर आ गया