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ऐसे साँचे रहे नहीं अब / नईम

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ऐसे साँचे रहे नहीं अब
जो अपने अनुरूप ढाल लें।
खरी धातु के सिक्कों-सा
हाटों-बाज़ारों में उछाल दें।

पूर्णाहुति की क्या कहते, प्रारम्भ अधूरे,
मूल्यों के ये ढेर हो रहे बिल्कुल घूरे;
पानी ही जब नहीं रहे, हम-
क्या धोएँ कैसे खँगाल लें?

अब है मात्र सियासत पूँजी की टकसालें,
पिद्दी चमचे, छुटभैयों को केवल ढालें;
धूर्त्त लकड़बग्घों की एवज-
बेहतर है, हम शेर पाल लें।

पुत्रवान होने से बेहतर आज निपूते,
काट रहे हैं रह-रहकर पैरों को जूते;
भूजी भाँग नहीं है घर में,
क्या पिसवाएँ, क्या उबाल लें?