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ऐ आह तेरी क़द्र असर ने तो न जानी / मोहम्मद रफ़ी 'सौदा'

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ऐ आह तेरी क़द्र असर ने तो न जानी
गो तुज को लक़ब हम ने दिया अर्श-मकानी

यक ख़ल्क़ की नज़रों में सुबुक हो गया लेकिन
करता हूँ मैं अब तक तेरी ख़ातिर पे गिरानी

टुक दीदा-ए-तहक़ीक़ से तू देख ज़ुलेख़ा
हर चाह में आता है नज़र युसूफ़-ए-सानी

मामूर है जिस रोज़ से वीराना-ए-दुनिया
हर जिंस के इंसाँ की ये माटी गई छानी

इस वामिक़-ए-नौ का है समझ चाक गिरेबाँ
करती है जो रख़्ना कोई दीवार पुरानी

बुलबुल ही सिसकती न थी कुछ बाग़ में तुझ बिन
शबनम गुलों के मुँह में चुवाती रही पानी

है गोश-ज़दा ख़ल्क़ मेरा क़िस्सा-ए-जाँ-काह
जब से कि न समझे था तू चिड़िया की कहानी

जूँ शम्मा तुझे शर्म है ज़ुन्नार की ऐ शैख़
माला न जपूँ रात को बे-अश्क़-फ़शानी

जिस सम्त नज़र मौज़-ए-सराब आवे तो ये जान
होवेगी किसी ज़ुल्फ़-ए-चलीपा की निशानी

क्या क्या मिले लैला-मनशाँ ख़ाक में ‘सौदा’
गो अपने भी महबूब की देखी न जवानी