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ऐ इश्क़ तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा / अल्ताफ़ हुसैन हाली

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ऐ इश्क़! तूने अक्सर क़ौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उस घर को खा के छोड़ा

अबरार<ref>नेक लोग</ref> तुझसे तरसाँ अहरार <ref>सभ्य लोग</ref> तुझसे लरज़ाँ
जो ज़द<ref>समक्ष</ref> पे तेरी आया इसको गिरा के छोड़ा

रावों<ref>राजाओं</ref> के राज छीने, शाहों के ताज छीने
गर्दनकशों<ref>घमण्डियों</ref> को अक्सर नीचा दिखा के छोड़ा

क्या मुग़नियों<ref>पेशेवर संगीतकारों</ref> की दौलत,क्या ज़ाहिदों का तक़वा<ref>सयंम</ref>
जो गंज<ref>ख़ज़ाना</ref> तूने ताका उसको लुटा के छोड़ा

जिस रहगुज़र पे बैठा तू ग़ौले-राह<ref>वोह जिन्न, जो जंगलों में मुसाफ़िरों को भटका देते हैं </ref> बनकर
सनआँ-से<ref>एक वयो-वृद्ध सयंमी फ़क़ीर जिसके सात सौ भक्त थे, इश्क़ की चपेट में आकर एक इसाई लड़की पर आशिक़ हो गए, जिसके परिणामस्वरूप उसे सूअर चराने जैसा काम करन पड़ा</ref> रास्तरौ<ref>सीधी राह पर चलने वाले, सयंमी</ref> को रस्ता भुला के छोड़ा

शब्दार्थ
<references/>