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ऐ ज़िंदगी कभी तो मेरे भी घर तू आना / सूरज राय 'सूरज'

ऐ ज़िंदगी कभी तो मेरे भी घर तू आना।
ग़ज़लों का है मोहल्ला, एहसास का घराना॥

मैं अधजली चिता में लेटा हूँ ऐ मुकद्दर
सर को कहाँ टिकाउं, दीवार है न शाना॥

पकड़ा है हाथ मेरा पीछे से दोस्तों ने
दुश्मन ये वार तेरा बैठा है कातिलाना॥

ये जिस्म बन गया है इक जख़्मघर सरापा
किस्मत ने फिर भी मुझको छोड़ा न आजमाना॥

आग़ाज़े-मिट्टी मिट्टी, अंजामे-मिट्टी मिट्टी
मिट्टी के लिए फिर क्यों शीशे के घर बनाना॥

ख़ुदगर्ज़ियों में तुमने ये होंठ-सी रखे हैं
कितने हो तुम अभागे आया न मुस्कुराना॥

ऐसा न हो कि मुझमें खो जाए तू ऐ नफ़रत
मैं हर्फे़-मुहब्बत हूँ, ये सोच के मिटाना॥

हाथों में मौत लेकर रोकोगे आशिको को
फ़ि तरत से सपेरों को रस्सी से मत डराना॥

तितली तेरे चमन में औजार बन रहे हैं
अब बन्द हो गया है फूलों का कारखाना॥

जिसके लिए तू "सूरज" ख़ुद को जला रहा है
उसने दियों की शह पर चाहा तुझे हराना॥