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ऐ सर्व-ए-ख़रामाँ तूँ न जा बाग़ / वली दक्कनी

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ऐ सर्व-ए-ख़रामाँ तूँ न जा बाग़ में चलकर
मत क़मरी-ओ-शम्‍शाद के सौदे में ख़लल कर

कर चाक गरेबाँ कूँ गुलाँ सेहन-ए-चमन में
आये हैं तिरे शौक़ में पर्दे सूँ निकल कर

सन्‍अत के मुसव्विर ने सबाहत के सफ़्हे पर
तस्‍वीर बनाया है तिरी नूर कूं हल कर

ऐ नूर-ए-नज़र शम्‍अ कूँ देखा हूँ सरापा
तुझ इश्‍क़ की आतिश सिती काजल हुआ जलकर

बेआब लगे आब-ए-हयात उसकी नज़र में
पानी हुआ तुझ गाल के जो इश्‍क़ में गलकर

तुझ अबरू-ए-ख़मदार सूँ हर्गिज़ न फिरे दिल
क्‍यूँ जावे सिपाही दम-ए-शम्‍शीर सूँ टल कर

ऐ जान-ए-'वली' लुत्‍फ़ सूँ आ बर में मिरे आज
मुझ आशिक़-ए-बेकल सिती मत वादा-ए-कल कर