भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऐ सर्व-ए-ख़रामाँ तूँ न जा बाग़ / वली दक्कनी
Kavita Kosh से
ऐ सर्व-ए-ख़रामाँ तूँ न जा बाग़ में चलकर
मत क़मरी-ओ-शम्शाद के सौदे में ख़लल कर
कर चाक गरेबाँ कूँ गुलाँ सेहन-ए-चमन में
आये हैं तिरे शौक़ में पर्दे सूँ निकल कर
सन्अत के मुसव्विर ने सबाहत के सफ़्हे पर
तस्वीर बनाया है तिरी नूर कूं हल कर
ऐ नूर-ए-नज़र शम्अ कूँ देखा हूँ सरापा
तुझ इश्क़ की आतिश सिती काजल हुआ जलकर
बेआब लगे आब-ए-हयात उसकी नज़र में
पानी हुआ तुझ गाल के जो इश्क़ में गलकर
तुझ अबरू-ए-ख़मदार सूँ हर्गिज़ न फिरे दिल
क्यूँ जावे सिपाही दम-ए-शम्शीर सूँ टल कर
ऐ जान-ए-'वली' लुत्फ़ सूँ आ बर में मिरे आज
मुझ आशिक़-ए-बेकल सिती मत वादा-ए-कल कर