भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐ हवाए-नग़मा मेरे जह्न के अंदर तो आ / निश्तर ख़ानक़ाही

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐ हवाए-नग़मा* मेरे जह्न के अंदर तो आ
देखना है तुझको जलते शहर का मंज़र तो आ

संगरेजों* की तरह बिखरी हुई है कहकशाँ
मेरे सीने से निकल, ऐ आस्माँ बाहर तो आ

ले न यों कम-फ़ुर्सती* से मुद्दआ*, बे-रग़बती*
अब अगर अक्सर नहीं आता न आ, कमतर तो आ

अब हवा के सामने सीना-सियर* यों ही न हो
दिल को अपने दे सके फ़ौलाद का पैकर तो आ

कुछ-न-कुछ बाक़ी तो होगा, खुदफ़रोशी* से बदन
बर्फ़ अब गिरने को है ऐ जाँ तहे-चादर* तो आ

1- ऐ हवाए-नग़मा--गीत लाने वाली हवा

2- संगरेजों--पत्थर के टुकड़ों

3- कहकशाँ--आकाश गंगा

4- कम-फ़ुर्सती--व्यवस्तता

5- मुद्दआ-अर्थ

6- बे-रग़बती--अलगाव

7- सीना-सियर--आमने-सामने

8- खुदफ़रोशी--स्वयं को बेचना

9-तहे-चादर--चादर के नीचे