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ओढ़ कुहासे की चादर / संजीव वर्मा ‘सलिल’

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ओढ़ कुहासे की चादर,
धरती लगाती दादी.
ऊँघ रहा सतपुडा,
लपेटे मटमैली खादी...

सूर्य अंगारों की सिगडी है,
ठण्ड भगा ले भैया.
श्वास-आस संग उछल-कूदकर
नाचो ता-ता थैया।
तुहिन कणों को हरित दूब,
लगती कोमल गादी...

कुहरा छाया संबंधों पर,
रिश्तों की गरमी पर।
हुए कठोर आचरण अपने,
कुहरा है नरमी पर।
बेशरमी नेताओं ने,
पहनी-ओढी-लादी...

नैतिकता की गाय काँपती,
संयम छत टपके.
हार गया श्रम कोशिश कर,
कर बार-बार अबके।
मूल्यों की ठठरी मरघट तक,
ख़ुद ही पहुँचा दी...

भावनाओं को कामनाओं ने,
हरदम ही कुचला.
संयम-पंकज लालसाओं के
पंक-फंसा- फिसला।
अपने घर की अपने हाथों
कर दी बर्बादी...
बसते-बसते उजड़ी बस्ती,
फ़िर-फ़िर बसना है।
बस न रहा ख़ुद पर तो,
परबस 'सलिल' तरसना है.
रसना रस ना ले, लालच ने
लज्जा बिकवा दी...
हर 'मावस पश्चात्
पूर्णिमा लाती उजियारा.
मृतिका दीप काटता तम् की,
युग-युग से कारा.
तिमिर पिया, दीवाली ने
जीवन जय गुंजा दी...