भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओळूं-गांठड़ी मन-आंगणै धरगी सिंझ्या / सांवर दइया
Kavita Kosh से
ओळूं-गांठड़ी मन-आंगणै धरगी सिंझ्या
मिली अर मिल परी दुख दूणो करगी सिंझ्या
आंख-खजानो खुल्यो आज म्हारै ई नांव
आंसू-रतन दे मालोमाल करगी सिंझ्या
हाथ झला कैयो – दो घड़ी तो भळै ठहरो
आज नईं, भळै आसूं – कौल करगी सिंझ्या
बा किंयां जीवै, म्हैं जाणू, थे पूछो म्हनै
म्हारी छाती सूं चिप डुसका भरगी सिंझ्या
अछेही तिरस अर अछेही हूंस ले आयी
देख जगत रो ढाळो मन में ठरगी सिंझ्या