भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओस के संवेद्य मौनाकाश में हो / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओस के संवेद्य मौनाकाश में ही

या सुगन्धों की सुखावह साँस में ही,

हो न हो यह ज़िन्दगी मेरी

कहीं अटकी हुई है ।

छोड़ता हूँ--छोड़ती मुझ को नहीं

तलवार मेरी ।

बह रही है धार मेरी

उठ रही ललकार मेरी ।