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ओ, मेरे स्वप्नों के मीत / उर्मिलेश
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ओ, मेरे स्वप्नों के मीत!
जबसे तुम दूर क्या हुए
नींदों के वन झुलस गये I
शिरा-शिरा लावे जैसा
बहता अभिशप्त ज्वार है,
मेरे तपते शरीर-सा
मौसम को भी बुखार है;
ओ, मेरे चन्दन-परिणीत!
जबसे तुम दूर क्या हुए
मुझको सौ नाग उस गये I
हर करवट नागफनी है
बिस्तर भी अब बबूल है,
पंख कटे भौरे-सा मन
उड़ता रहता फिजूल है;
ओ, मेरे गान्धव अपनीत!
जब से तुम दूर क्या हुए
पतझर हर ओर बस गये I
फीकी हर सुबह हो गई
बासी हर शाम हो गई,
वह उजास वाली यात्रा
धुंधों के नाम हो गई;
ओ, मेरे दर्शन-संगीत!
जबसे तुम दूर क्या हुए
दर्पण भी व्यंग्य कस गए I