भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ गोरी! तेरा मन किसने छीना! / गुलाब खंडेलवाल
Kavita Kosh से
ओ गोरी! तेरा मन किसने छीना!
और कहीं पर तार बँधे हैं, और कहीं है वीणा
अंग-अंग बजते हों सुर में
तान मधुर भी हो नूपुर में
किन्तु और ही धुन है उर में
ताल-छंद-लय-हीना
तू तो रँगी श्याम के रँग में
पातिव्रत्य निभे क्या जग में!
सौ मन की साँकल हो पग में
पड़े जहर भी पीना
ओ गोरी! तेरा मन किसने छीना!
और कहीं पर तार बँधे हैं, और कहीं है वीणा