भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ओ दिशा ! ओ दिशा !/ हरीश भादानी
Kavita Kosh से
ओ दिशा ! ओ दिशा !
कब से खड़े
रास्ते घेर घर
संशयों के अँधेरे
सहमी हुई साँझ ड्योढ़ी खड़ी
ठहरे हुए ये चरण
सिलसिले हो उठें
संकल्प की हथेली पर
दृष्टि का सूर्य रखले
ओ, दिशा ! ओ, दिशा !
मौन के साँप
कुण्डली लगाए हुए
हर एक चेहरा
हर दूसरे से अलग जी रहा
साँस बजती नहीं,
आँख से आँख मिलती नहीं
सारे शहर में
कहीं कुछ धड़कता नहीं,
चोंच भर-भर बुनें,
षोर का आसमां
स्वरों के पखेरू उड़ा
ओ, दिशा ! ओ, दिशा !