ओ देवनागरी / हरेराम बाजपेयी 'आश'
जिन्दगी का हर क्षण
तुम्हारी चाह में बीता
न मैं तुमसे कभी अलग रहा, न तुम मुझसे,
इसीलिए हर पल एक नए भाव लेकर आया,
और मैं कभी नहीं रहा रीता
तुमने जो साथ निभाया
शब्द दिये प्रेणा दी
तभी मैं मिरा का मर्म
तुलसी की रामायण और
महादेवी का धर्म समझ पाया
दर्द दोस्त बन गया
पीड़ा सहली
जिन्दगी अब नहीं रही अकेली
अगर तुम न होती
तो मैं कुछ भी नहीं बन पाता
आज के दौर में, गांधी के बन्दरों के समान
अंधा, गूंगा और बेहरा रह जाता
तुम्हें मैं कितना चाहता हूँ
वह बताने के लिये, शब्दों का सहारा लेता हूँ
और
तुम्हारे दिये शब्दों उपहारों से
कभी कभार कोई गीत बना लेता हूँ
बदले में ज़िन्दगी की हर साँस तुम्हें अर्पित है
मेरी रचनाएँ स्वांत-सुखाय है
फिर भी तुम्हें अर्पित हैं।
विश्व में तुम्हीं हो मेरे लिये श्रेष्ठ और माधुरी,
शत-शत प्रमाण तुम्हें, ओ हिन्दी ओ देवनागरी॥