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ओ नील गगन के श्वेत मेह / प्रभात पटेल पथिक

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तुम लाते हो क्यों सुधि उसकी
ओ नील गगन के श्वेत मेह।

जिसको ये मन बिसराने का
है वर्षों से कर रहा यत्न।
पर अनुत्तीर्ण हो रह जाता
जाने कैसा यह कठिन प्रश्न।
अब आये हो तो बरसो भी
कुछ तो शीतल हो तप्त देह।
ओ नील गगन के

तुम-सी ही थी उसकी मूरत
तुम-सा जल-बिम्ब निखरता था।
क्या कह दें एक घड़ी को भी
उसके बिन बहुत अखरता था।
हम दो तन थे पर रहते थे
सुंदर से मन के एक गेह।
ओ नील गगन के श्वेत् मेह।