ओ प्यासे / गोपालदास "नीरज"
हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे!
प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है!
हैं तरह-तरह के फूल धूल की बगिया में
लेकिन सब ही आते पूजा के काम नहीं,
कुछ में शोख़ी है, कुछ में केवल रूप रंग
कुछ हँसते सुबह मगर मुस्काते शाम नहीं,
दुनिया है एक नुमायश सीरत–सूरत की
होती है क़ीमत मगर नहीं हर मूरत की
हर सुन्दर शीशे को मत अश्रु दिखा अपने,
सौन्दर्य न अपनाता, केवल शरमाता है!
हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे!
प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है!
पपिहे पर वज्र गिरे, फिर भी उसने अपनी
पीड़ा को किसी दूसरे जल से नहीं कहा,
लग गया चाँद को दाग़, मगर अब तक निशि का
आँगन तज कर वह और न जा कर कहीं रहा,
हर एक यहाँ है अडिग–अचल अपने प्रण पर
फिर तू ही क्यों भटका फिरता है इधर–उधर,
मत बदल–बदल कर राह सफ़र तय कर अपना
हर पथ मंज़िल की दूरी नहीं घटाता है!
हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे!
प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है!
दीपक ने जलन दिखा डाली सबको अपनी
इस कारण अब तक उसका जलना बंद नहीं,
है भटक रहा भँवरा बन–बन बस इसीलिये
है एक फूल का चुंबन उसे पसंद नहीं,
है प्यार स्वतंत्र, मगर है कहीं नियंत्रण भी
ज्यों छंद कहीं है मुक्ति, कहीं है बन्धन भी,
हर देहरी मत अपनी भक्ति चढ़ा पागल !
हर मन्दिर का भगवान न पूजा जाता है ।
(हर मंदिर का तो बस पाषाणों से नाता है!)
हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे!
प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है!
जलते-जलते फट गया हिया धरती का पर
सावन जब आया अपनी मर्ज़ी से आया,
बादल जब बरसा अपनी मर्ज़ी से बरसा,
नभ ने जब गाया अपनी मर्ज़ी से गाया,
इच्छा का ही चल रहा रहँट हर पनघट पर,
पर सब की प्यास नहीं बुझती है इस तट पर
तू क्यों आवाज़ लगाता है हर गगरी को?
आनेवाला तो बिना बुलाये आता है।
हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे!
प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है!
मैं आज सुबह बाज़ार गया तो बीच सड़क
कुछ कपड़े बेच रहा था कोई सौदागर,
मनमोहक बरन-बरन का जिनका सूत देख,
मेरा भी रीझ गया मन एक दुलाई पर,
ओढ़ा पर उसको तो सब करने लगे व्यंग,
पर ग्राहक एक तभी बोला यह देख ढंग-
मन भले विवाह करे हर एक वस्त्र से पर
हर वस्त्र नहीं हर तन पर शोमा पाता है।
हर घट से अपनी प्यास बुझा मत ओ प्यासे!
प्याला बदले तो मधु ही विष बन जाता है!