ओ मरण / शिवदेव शर्मा 'पथिक'
ओ मरण! तुम दूर रहना, मैं न मरना चाहता हूँ
आज ज्वालामय जगत से प्यार करना चाहता हूँ
ढीठ लहरों ने कहा, क्या मैं अचंचल हो गया हूँ
याद रख, इस बात से मैं और चंचल हो गया हूँ
अब जलधि के ज्वार से भी, उच्चतर है ज्वार मेरा
सह सकोगी सुस्त लहरें, बोल दो क्या भार मेरा?
कूल पर तो मैं खड़ा हूँ, उर्मियाँँ इतरा रही हो
भार मेरी ज़िन्दगी को कह, किधर तुम जा रही हो?
तू ठहर जा, तू ठहर जा! कूदकर मैं आ रहा हूँ
बाहुओं से आज लहरों को पकड़ना चाहता हूँ
ओ मरण! तुम दूर रहना, मैं न मरना चाहता हूँ
ज़िन्दगी में जोश है तो संकटों को झेल लूँगा
खेल लूँगा बिजलियों से, आँधियों से खेल लूँगा
ज़िन्दगी है एक नौका, तैरती मझधार है यह
पास में मेरे, जवानी की नई पतवार है यह
ज़िन्दगी क्या, जो न देती है तूफ़ानों को चुनौती
ज़िन्दगी जिस पर चढ़ी है, वह जवानी की कसौटी
तो मरण! मैं आज तुझ से ज़िन्दगी की भीख क्या लूं?
स्वयं ही तो मैं चिता में प्राण भरना चाहता हूँ
ओ मरण! तुम दूर रहना, मैं न मरना चाहता हूँ
मैं तुम्हें ललकारता हूँ, ओ मरण! तुम पास आओ
मैं सृजन को गा रहा हूँ, तुम मरण के गीत गाओ
मैं लहर पर तैरता हूँ, और तुम मुझको उठा लो
उर्मियों! अलमस्त हूँ मैं, तुम सृजन के गीत गालो
मैं लहर पर, आसमां में ज़िन्दगी का गीत होगा
मैं मरूँगा विश्व बोलो! या मरण ही भीत होगा?
जब तलक मानव रहेगा एक भी, ज़िन्दा ज़मीं पर,
याद रख, तबतक मरण को, मैं जकड़ना चाहता हूँ
ओ मरण! तुम दूर रहना, मैं न मरना चाहता हूँ।