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ओ मेरे जीवन राग ! / मदन गोपाल लढ़ा
Kavita Kosh से
तुम पसर जाती हो अक्सर
हवा में
खुशबू बनकर
तुम खिल उठती हो
गुलाब की पंखुडिय़ों में
लाली बनकर
तुम छा जाती हो
पूर्णिमा की रात्रि में
ज्योत्स्ना के रूप में
तुम बरसती हो
बादलों से
पानी की फुहारों में
तुम्हारी गुनगुनाहट
गूंजती है सृष्टि में
सरगम बनकर।
ओ मेरे जीवन राग!
तुम्हारी व्यापकता में
सिमटकर मैं
बिसार देता हूँ
अपना निजत्व।