तुम पसर जाती हो अक्सर
हवा में
खुशबू बनकर
तुम खिल उठती हो
गुलाब की पंखुडिय़ों में
लाली बनकर
तुम छा जाती हो
पूर्णिमा की रात्रि में
ज्योत्स्ना के रूप में
तुम बरसती हो
बादलों से
पानी की फुहारों में
तुम्हारी गुनगुनाहट
गूंजती है सृष्टि में
सरगम बनकर।
ओ मेरे जीवन राग!
तुम्हारी व्यापकता में
सिमटकर मैं
बिसार देता हूँ
अपना निजत्व।