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ओ मेरे वक़्त तुम सुनो ! / शहनाज़ इमरानी
Kavita Kosh से
उन्हें भी चाहिए
उनके हिस्से की हवा
उनके हिस्से की ज़मीन
उनके हिस्से का आसमान
उनके हिस्से की ख़ुशी
ओ मेरे वक़्त तुम सुनो !
कि ज़िन्दगी में
इन्सान मोहब्बतों के लिए
और चीज़ें इस्तमाल के लिए थीं
लेकिन हवस ने हमारी आत्मा
की गठरी बना कर
एक गहरे काले समन्दर में
पत्थरों से बाँध कर फेंक दिया
अब हम चीज़ों से मोहब्बत करते हैं
और इन्सानों का इस्तमाल करते हैं
अपनी तमाम अमानवी क्रूरताओं के साथ
हर जगह क़ब्ज़ा करती जा रही हैं
बढ़ती ज़रूरतें और लालसाएँ