औरतों की दुनिया में एक आदमी / शिरीष कुमार मौर्य
वे दुखों में लिथड़ी हैं
और प्रेम में पगी
दिन-दिन भर खटीं किसी निरर्थक जांगर में
बिना किसी प्रतिदान के
रात-रात भर जगीं
उनके बीच जाते हुए
डर लगता है
उनके बारे में कुछ कहते कुछ लिखते
दरअसल
अपने तमामतर दावों के बावजूद
कभी भी
उनके प्रति इतने विनम्र नहीं हुए हैं हम
इन दरवाज़ों में घुसने की कोशिश भर से ही
चौखट में
सर लगता है
यक़ीन ही नहीं होता
इस दुनिया में भी घुस सकता है
कोई आदमी इस तरह
खंगाल सकता है इसे
घूम सकता है यूँ ही हर जगह
लेता हुआ
सबके हाल-चाल
और कभी
खीझता नहीं इससे
भले ही खाने में आ जाएं
कितने भी बाल!
यहां सघन मुहल्ले हैं
संकरी गलियां
पर इतनी नहीं कि दो भी न समा पाएं
इनमें चलते
देह ही नहीं आत्मा तक की
धूल झड़ती है
कोई भी चश्मा नहीं रोक सकता था इसे
यह सीधे आंखों में
पड़ती है
कहीं भी पड़ाव डाल लेता है
रूक जाता है
किसी के भी घर
किसी से भी बतियाने बैठ जाता है
जहाँ तक नहीं पहुंच पाती धूप
वहाँ भी यह
किसी याद या अनदेखी खुशी की तरह
अंदर तक पैठ जाता है
वे इसके आने का बुरा नहीं मानती
हो सकता है
कोताही भी करती हों
पर अपने बीच इसके होने का मतलब
ज़रूर जानती है
उन्हें शायद पता है
समझ पाया अगर तो यही उन्हें
ठीक से समझ पाएगा
उनके भीतर की इस गुमनाम-सी यातना भरी दुनिया को
बाहर तक ले जाएगा
एक बुढ़िया है कोई अस्सी की उमर की
उसे पुराने बक्से खोलना
अच्छा लगता है
दिन-दिन भर टटोलती रहती है
उनके भीतर
अपना खोया हुआ समय या फिर शायद कोई आगे का पता
पूछताछ करते किसी दरोगा की तरह
चीख पड़ती है
अचानक खुद पर ही- बता !
बता नहीं तो …
एक औरत
जो कथित रूप से पागल है
आदमी को देखते ही नंगी होने लगती है
उसके दो बरस के बच्चे से
पूरी की थी एक दिन
किसी छुपे हुए जानवर ने अपनी वासना
मर गया था उसका बच्चा
कहती है घूम-घूम कर नर-पशुओं से -
छोड़ दो !
छोड़ दो मेरे बच्चे को
बच्चे को कुछ करने से तो मुझ माँ को करना अच्छा
एक लड़की है
जो पढ़ना चाहती है और साथ ही यह भी
कि भाई की ही तरह मिले
आज़ादी उसे भी
घूमने-फिरने की
जिससे मन चाहे दोस्ती करने की
कभी रात घर आए
तो मां बरजने और पिता बरसने को
तैयार न मिलें
बाहर कितनी भी गलाज़त हो
कितने ही लगते हों अफ़वाहों के झोंके
कम से कम
घर के दरवाज़े तो न हिलें
एक बहुत घरेलू औरत है
इतनी घरेलू कि एक बार में दिखती ही नहीं
कभी ख़त्म नहीं होते उसके काम
कोई कुछ भी कह कर पुकार सकता है उसे
वह शायद खुद भी भूल चुकी है
अपना नाम
सास उसे अलग नाम से पुकारती है
पति अलग
खुशी में उसका नाम अलग होता है और गुस्से में अलग
कोई बीस बरस पहले का ज़माना था जब ब्याह कर आयी
और काले ही थे उसके केश
जिस ताने-बाने में रहती थी वह
लोग
संयुक्त परिवार कहते थे उसे
मैं कहता हूं सामंती अवशेष
कुछ औरतें हैं छोटे-मोटे काम-धंधे वाली
इधर-उधर बरतन मांजतीं
कपड़े धोतीं
घास काटतीं
लकड़ी लातीं
सब्ज़ी की दुकान वगैरह लगातीं
ये सुबह सबसे पहले दृश्य में आती है
चोरों से लेकर
सिपाहियों तक की निगाह उन्हीं पर जाती है
मालिक और गाहक भी
पैसे-पैसे को झगड़ते हैं
बहुत दुख हैं उनके दृश्य और अदृश्य
जो उनकी दुनिया में पांव रखते ही
तलुवों में गड़ते हैं
जिन रास्तों पर नंगे पांव गुज़ार देती हैं
वे अपनी ज़िंदगी
अपने-अपने हिस्से के पर्व और शोक मनाती
उन्हीं पर
हमारे साफ-सुथरे शरीर
सुख की
कामना में सड़ते है
वे पहचानती है हमारी सडांध
कभी-कभार नाक को पल्लू से दबाये
अपने चेहरे छुपाए
हमारे बीच से गुज़र जाती हैं
मानो उन्हें खुद के नहीं
हमारे वहाँ होने पर शर्म आती हैं
आलोक धन्वा से उधार लेकर कहूँ तो वे दुनिया की सबसे सुंदर औरतें थीं
लुटेरों बटमारों
और हमारे समय के कोतवालों से पिटतीं
हर सुबह
सूरज की तरह काम पर निकलतीं
वे दुनिया की सबसे सुंदर औरतें हैं
आज भी
उनमें बहुत सारी हिम्मत और ग़ैरत बाक़ी है अभी
और हर युग में
पुरुषों को बदस्तूर मुंह चिढ़ाती
उनकी वही चिर-परिचित
लाज भी!
कुछ औरतें हैं जो अपने हिसाब से
अध्यापिका होने जैसी किसी निरापद नौकरी पर जाती हैं
इसके लिए घरों की इजाज़त मिली है उन्हें
एक जैसे कपड़े पहनती
और हर घड़ी साथ खोजती हैं किसी दूसरी औरत का
वे घर से बाहर निकल कर भी
घर में ही होती हैं
सुबह काम पर जाने से पहले
पतियों के अधोवस्त्र तक धोती हैं
हर समय घरेलू ज़रूरतों का हिसाब करतीं
खाने-पकाने की चिंता में गुम
पति की दरियादिली को सराहतीं हैं कि बड़े अच्छे हैं वो
जो करने दी हमको भी
इस तरह से नौकरी
आधी खाली है उनके जीवन की गागर
पर उन्हें दिखती है
आधी भरी
कुछ बच्चियां भी हैं दस-बारह बरस की
हालांकि बच्चों की तो होती है एक अलग ही दुनिया
पर वे वहाँ उतनी नहीं हैं
जितनी कि यहाँ
उन्हें अपने औरत होने का पूरा-पूरा बोध है
वह नहीं देखना चाहता था
उन्हें जहाँ
उसकी सदाशयता पर कोड़े बरसातीं
वे हर बार
ठीक वहीं हैं
वे भांति-भांति की हैं
उनके नैन-नक्श रंग-रूप अनंत हैं
उनके जीवन में अलग-अलग
उजाड़ पतझड़
और उतने ही बीते हुए बसंत हैं
उनके भीतर भी मौसम बदलते हैं
शरीर के राजमार्ग से दूर कई पगडंडियां हैं
अनदेखी-अनजानी
ज़िदगी की घास में छुपी हुई
बहुत सुंदर
मगर कितने लोग हैं
जो उन पर चलते हैं?
फिलहाल तो
विलाप कर सकती हैं वे
इसलिए
रोती हैं टूटकर
मनाती हैं उत्सव
क्योंकि उनका होना ही इस पृथ्वी पर
एक उत्सव है
दरअसल
आख़िर
कितनी बातें हैं जो हम कर सकते हैं उनके बारे में
बिना उन्हें ठीक से जाने
क्या वे खुद को जानने की इज़ाजत देंगी
कभी?
अभी
उन्हें समझ पाना आसान नहीं है
अपने अंत पर हर बार
वे उस लावारिस लाश की तरह है
जिसके पास शिनाख्त के लिए कोई
सामान नहीं है
इस वीभत्स अंत के लिए यह आदमी बेहद शर्मिन्दा है
पर क्या करे
आख़िर इस दुनिया में किस तरह कहे
किस तरह कि अभी बाक़ी है लहू उसमें
अभी कुछ है
जो उसमें जिन्दा है !