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औरत और लंच-बॉक्स / अलका सिन्हा

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बचपन में देखती थी
कचहरी से लौटकर आते थे बाबूजी
और मां
झट हाथ से छाता, बैग ले लेती थी
आसन बिछाकर भोजन परोसती थी।

बाबूजी घर-बाहर का हाल-समाचार
पूछते-बताते खाना खाते
और मां पंखा झलती रहती थी।

कितनी तृप्ति होती थी
थाली समेटती मां के चेहरे पर
सुखदायी होती थी कल्पना
खुद को इस परंपरा की
कड़ी के रूप में देखने की।

किन्तु इस भाग-दौड़ में
दो पल बतियाने की
सामने बिठाकर खाना खिलाने की
फुर्सत कहा मिलती है।

तुम्हारे लाख मना करने पर भी
धर देती हूँ दो रोटी, सूखी सब़्जी
और थोड़ा अचार
तुम्हारे लंच-बॉक्स में।

‘क्यों नाहक परेशान होती हो तुम
हमारी कैंटीन में भी मिल जाती है दाल-रोटी’
कहकर उठा लेते हो तुम अपना डिब्बा
और चल देते हो दफ़्तर की ओर।

तुम कभी नहीं करते हो तारीफ़
न ही शिकायत
कि आज लंच में क्या दे दिया तुमने ?

शाम जब सिंक में खोलती हूँ
उँगलियों से चाटकर
साफ किया लंच बॉक्स
तो दिखने लगता है मुझे
कि दफ्तर के लॉन
या कैंटीन में बैठकर
तुमने खोला था डिब्बा
खाई थी रोटी और
ऊँगलियों से चाटकर कटोरी
बैठ गये थे सुस्ताकर।

ठीक तभी
एकदम दबे पाँव
गुनगुनी धूप की तरह पहुँचकर मैंने
समेट-दिये थे रोटी-सब्जी के डिब्बे
जैसे कि माँ पानी छिड़ककर
समेट लेती थी बासन
और चौका कर तृप्त हो जाती थी।

वैसी ही तृप्ति मुझे भी मिल जाती है
सिंक में खोलते हुए तुम्हारा लंच-बॉक्स
और सोचती हूँ तृप्ति का ये सुख
एक औरत के हिस्से का है
इसे तुम नहीं समझ पाओगे।